Thursday, December 10, 2009

संसदीय परंपरा पर सवाल



राष्ट्र प्रश्नाकुल है। राष्ट्रजीवन में प्रश्नकाल है। ढेर सारे प्रश्न हैं, लेकिन संसद में शून्यकाल है। संसद देशकाल का दर्पण है। करोड़ों लोगों के हर्ष, विषाद, आस्था, अपेक्षा का सर्वोच्च प्रतिनिधि सदन है। सासद अपने क्षेत्र की जनता के प्रवक्ता और आशादीप हैं। वे इसीलिए मान्यवर हैं और सरकार की प्रत्येक गतिविधि पर सवाल करने, जवाब पाने के अधिकारी हैं, लेकिन बीते 30 नवंबर को सवाल पूछने वाले अधिकाश 34 मान्यवर अनुपस्थित थे। प्रश्नकाल थोड़ी ही देर चला। आहत लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने कहा कि यह गंभीर मसला है। कार्यवाही का यह एक घटा ही लोकतंत्र का सार है। पिछले डेढ़-दो दशक से यह प्रवृत्ति बढ़ी है। 1989 में दो बार, 1988 में तीन और 1985 में पांच बार ऐसी ही स्थितिया आई हैं। हर दफा गंभीर वक्तव्य आते हैं, लेकिन अनुपस्थिति की मूल वजहों पर गंभीर चिंतन नहीं होता। कानून निर्माण के समय भी कोरम का अभाव रहता है। बजट चर्चा के समय भी सदस्य संख्या घट जाती है। महंगाई जैसे अखिल भारतीय आर्थिक प्रश्न पर भी उपस्थिति संतोषजनक नहीं थी। मूलभूत प्रश्न यह है कि मान्यवरों की सर्वोच्च प्राथमिकता क्या है? क्या उनके अपने उद्योग-व्यापार ही उनकी प्रथम वरीयता हैं? क्या राजनीति संसदीय कामकाज से ज्यादा सर्वोपरि है? क्या निमंत्रण, भोज या उद्घाटन संसदीय कार्यवाही और बहुमूल्य प्रश्नकाल की तुलना में ज्यादा औचित्यपूर्ण हैं?
प्रश्नोत्तर संसदीय परंपरा का प्राणतत्व है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने काफी संघर्ष के बाद अंग्रेजी सत्ता से प्रश्नकाल की बहाली करवाई थी। अंग्रेज अपने यहा पार्लियामेंट चलाते थे, लेकिन उपनिवेशों में तानाशाही थी। भारत, अमेरिका आदि उपनिवेश जवाबदेह संसदीय परंपरा की माग कर रहे थे। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी। 1861 के भारतीय परिषद अधिनियम में भारत की विधान परिषद को कानूनी कामकाज तक ही सीमित किया गया था। भारतवासी प्राचीन प्रश्नकाल परंपरा की बहाली चाहते थे। संघर्ष के चलते 1892 के अधिनियम में प्रश्न करने का अधिकार स्वीकार हुआ। अनुपूरक प्रश्नों की छूट नहीं थी। अंग्रेजों ने 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम से यह छूट भी दी, लेकिन प्रश्न पूछने और उत्तर पाने की वास्तविक स्थिति 1919 के मोंटेगो चेम्सफोर्ड सुधारों से मिली। ब्रिटिश संसद स्वयं में संप्रभु थी, लेकिन भारतीय विधान परिषद पर गवर्नर जनरल का वीटो था। इसी पद्धति के विकास से भारत ने ब्रिटिश संसदीय परंपरा अपनाई।
कायदे से ब्रिटिश संसद के 1935 के अधिनियम को शून्य करके अपनी संसदीय प्रणाली बनानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। केंद्रीय सत्ता संसद के प्रति जवाबदेह है। प्रश्नकाल संसद का दिव्य मुहूर्त है। प्रश्नाकुल राष्ट्र के जनप्रतिनिधि प्रश्नाकुल होने चाहिए, लेकिन खामिया भी हैं। पहली लोकसभा में स्वीकार 43,725 प्रश्नों में से केवल 61 प्रतिशत प्रश्नों के ही उत्तर मिले। दूसरी लोकसभा में 24,631 प्रश्न स्वीकृत हुए, लेकिन 47 प्रतिशत का ही जवाब मिल पाया। तीसरी में 56,355, चौथी में 93,538, पाचवीं में 98,606, छठवीं में 50,144 और सातवीं में 1,02,959 प्रश्न स्वीकृत हुए। उत्तर का प्रतिशत 35 से 39 के बीच ही रहा। नौवीं से लेकर बारहवीं लोकसभा में उत्तर प्रदेश 20 से 25 प्रतिशत के आसपास रहा। संसदीय प्रश्नों की गुणवत्ता घटी है। सरकार की जवाबदेही गैर-जिम्मेदाराना हुई है। प्रश्नों के उत्तर की तैयारी में लाखों रुपये खर्च होते हैं। एक घटे के प्रश्नकाल पर 15-20 लाख रुपये का खर्च होता है। प्रश्नों से सरकार को मदद मिलती है। सरकारी कामकाज और प्रशासन में चुस्ती आती है। राष्ट्र के समक्ष हजारों प्रश्न हैं। गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजी-रोजगार और सरकार प्रायोजित पुलिस अत्याचार के चीखते प्रश्न हैं। नक्सलपंथ, जिहादी आतंक, अलगाववाद और क्षेत्रीयताओं के प्रश्न नींद हराम कर चुके हैं। भाषाई हिंसा, बाग्लादेशी घुसपैठ और बाजारवादी अर्थव्यवस्था से कमजोर होती राष्ट्र-राज्य की शक्ति के प्रश्न अनुत्तरित हैं। यहा प्रश्न ही प्रश्न हैं। प्रश्नों का देशकाल है। बावजूद इसके प्रश्न पूछने वाले ही गायब हो रहे हैं।
सवाल पूछने वाले भी उत्तर देने को बाध्य किए जाने चाहिए। पहले ऐसी परंपरा थी। पहली लोकसभा की अनुपस्थिति संबंधी समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि लोकसभा को अधिकार है कि वह अनुपस्थित सदस्य से कारण पूछे। सभा के प्रति सदस्यों का कर्तव्य सर्वोपरि है। वे सभा से तभी अनुपस्थित हों जब अनुपस्थित होने के लिए विवश किए जाएं। नियम समिति ने छुट्टी लेने के नियम 1950 में बनाए। अनुपस्थिति संबंधी समिति ने जुलाई 1957 में कहा कि अनुपस्थिति का कारण बीमारी बताए जाने पर डाक्टरी प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं होगी, लेकिन गैरहाजिरी से चिंतित सदन ने एक सदस्य से डाक्टरी प्रमाण पत्र भी मागा। अध्यक्ष मावलंकर ने तमाम आदर्श अपनाए। उन्होंने 1951 में मा की बीमारी व 1953 में स्वयं की बीमारी की छुट्टी मागी। सदन में उनके संदेश पढ़े गए। 1953 में सिंचाई मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने भी लिखित छुट्टी मागी। 1952 में वित्त मंत्री देशमुख ने राष्ट्रमंडल की बैठक में जाने के लिए और कृषि मंत्री एसके पाटिल ने 1960 में अमेरिका यात्रा के लिए लिखित छुट्टी ली। लोकसभा में सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति छुट्टी वाले आवेदनो पर विचार करती है। समिति को उपस्थिति के संबंध में अनेक अनुषंगी अधिकार हैं। संसद या विधानमंडल की सदस्यता विशेषाधिकार देती है। मोटा भत्ता, वेतन, ढेर सारी सुविधाएं, हनक और ठसक देती हैं। सदस्यता अपराधी और माफिया को भी माननीय बनाती है, लेकिन सदस्य उन्मुक्त नहीं हैं। वे सदन की सेवा के लिए ही वेतन पाते हैं। उनकी अनुपस्थिति प्रत्येक दृष्टि से अक्षम्य है। लोकसभा के अध्यक्ष सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति को गैरहाजिरी की बढ़ती प्रवृत्ति पर रिपोर्ट देने के निर्देश दें। एक दिन की भी गैरहाजिरी पर कारण बताओ नोटिस जारी होना चाहिए। दलों के सचेतक और नेता केवल वोट वाले दिन ही उपस्थिति सुनिश्चित कराते हैं। शेष समय अपने सदस्यों को छुट्टा रखते हैं। सदन की कार्यवाहिया निराश करती हैं। राष्ट्रीय समस्याओं पर भी गंभीर चर्चा नहीं होती। संसद और विधानमंडलों को गरिमामय बनाना राष्ट्रीय आवश्यकता है।
संसद की सेवा ही हमारे सासदों की सर्वोच्च प्राथमिकता क्यों नहीं है? भारत में प्राचीनकाल से ही प्रश्नोत्तर परंपरा है। ऋग्वेद में सैकड़ों प्रश्न हैं। उत्तर वैदिक काल का समूचा दर्शन प्रश्नोत्तर है। वाल्मीकि रामायण में राम ने भरत से खेती-किसानी और राज्य व्यवस्था से जुड़े तमाम प्रश्न पूछे थे। यक्ष-युधिष्ठिर सवाल-जवाब विश्वविख्यात हैं। महाभारत का सभापर्व संसदीय परंपरा की शान है। सभा में जानबूझकर न जाना और जाकर चुप रहना पाप है। सभा में घटित दोष का आधा पाप अध्यक्ष पर, एक चौथाई मौन सदस्यों पर और बाकी एक चौथाई गलती करने वालों पर पड़ता है। प्राचीन भारत के राजकाज में प्रश्न थे, उनके उत्तर थे, लेकिन इस्लामी, अंग्रेजी राज ने राजा की जवाबदेही घटाई। स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने इसकी पुनस्र्थापना की। स्वतंत्र भारत की राजनीति ने इसका कबाड़ा कर दिया है। संसदीय परंपरा को संवारना, संव‌िर्द्धत करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है। जनता सर्वोच्च न्यासी है। जनगणमन देखे, जाचे कि उसके प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं?
[हृदयनारायण दीक्षित: लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं]

साभार दैनिक जागरण


Saturday, August 30, 2008

इस्लामी आतंकवाद का असली पैरोकार बना सिमी

राजीव कुमार
यूं तो भारत वर्षों से आतंकवाद का दंश झेलता रहा है, लेकिन पहले यह केवल कश्मीर घाटी तक सीमित था। किन्तु समय बीतने के साथ-साथ पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद ने अपना ध्यान देश के अन्य शहरों में भी देना शुरू किया। पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों ने अपनी रणनीति बदलते हुए भारत के अंदर आतंकी समूह बनानी शुरू की और स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया अर्थात सिमी के रूप में उसे एक मजबूत और भरोसेमंद साथी भी मिला। आज हालात यह है कि सिमी अपने दम पर देश भर में आतंकी कार्रवाइयों को बेखौफ होकर अंजाम दे रहा है। सिमी का मानस पुत्र इंडियन मुजाहिदीन इस्लाम के नाम पर अपने कुकृत्यों को जायज ठहराता है।

भारत ही नही विश्व भर में आतंकियों का एक ऐसा संगठन है, जो इस्लाम के नाम पर अन्य धर्मावलंबियों की खात्में की बात करता है। इन संगठनों के द्वारा चलाये जा रहे इस्लामिक आतंकवाद ने पूरे दुनिया में तांडव मचा रखा है। इसके आतंक से पूरी दुनिया त्राहि माम-त्राहि माम कर रही है। ये इस्लामिक आतंकवादी कुरान की कुछ आयतों का सहारा लेकर पूरी दुनिया से काफिरों को खत्म कर इस्लामिक राज्य की स्थापना करने का दु:स्वप्न देख रहे हैं। ये आतंकी अपनी आतंककारी, विध्वंसक घटनाआें को अंजाम देने में कुरान के आयतों का हवाला देकर इसे जायज ठहराने से गुरेज नही करते। वैसे आमतौर पर देखा जाता है कि इस्लाम के मानने वाले कट्टर मुसलमान कहीं भी हो वो उस देश के कानून, संविधान, राष्ट्रीय गीत को नही मानते हैं।

हिन्दुस्तान में भी मुसलमानों का एक कट्टरपंथी वर्ग जो जिन्ना के मानसिकता का है, वो आतंकियों के इस इस्लामिक जेहाद का समर्थन कर रहा है। और वह पाकिस्तान के खुफिया एजेंसी आईएसआई के हांथों का खिलौना बनने को तैयार हो गया है। कश्मीर का ही उदाहरण लिया जाए तो वहां भारत सरकार ने कितना आर्थिक सहयोग किया है, कितनी सुविधाएं मुहैया कराईं हैं मगर कश्मीर के मुसलमान उस सहयोग को हवा में उड़ा देते हैं। वे सिर्फ पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने और वहां के झंडे फहराने में ही अपनी वफादारी समझते हैं। कश्मीरी मुसलमानों कीे भारत की धर्म निरपेक्षता में जरा सी भी आस्था नही है। वहां की पीडीपी, नेशनल कांग्रेस जैसी सरीखी पार्टियां भी अलगाववादियों के सुर में अपना सुर मिला रही हैं।

आज विध्वंसक गतिविधियों को अंजाम देने वाले आतंकियों व देश में इनका समर्थन करने वाले कट्टरपंथियों के कारण हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था खतरे में है। वैसे इस देश में लोकतंत्र तभी तक कायम रहेगा जब तक हिन्दू बहुसंख्यक है। मुसलमानों के बहुसंख्यक होने पर यह अपने धर्मनिरपेक्ष छवि को कायम नही रख पाएगा। दुरर्र्र््भाग्य से कुछ राजनीतिक पार्टियां अपने मुस्लिम परस्ती रणनीति व वोट बैंक के चलते आतंकवाद को और बढ़ाने का काम कर रही हैं। सपा के आका मुलायम सिंह खुलकर सिमी का समर्थन कर रहे हैं। अभी हाल ही में माननीय न्यायधीश श्रीमती गीता मित्तल की अध्यक्षता वाली पंचाट पीठ ने सरकार पर सिमी पर प्रतिबंध जारी रहने के पक्ष में पर्याप्त सबूत न देने का आरोप लगाते हुए सिमी पर से प्रतिबंध हटा दिया तो लालू यादव, राम विलास पासवान जैसे नेता बड़ी बेशर्मी और बेहयाई से इसका स्वागत किया।

जिस राष्ट्र के नेता आतंकवाद जैसी देश को विध्वंस करने वाली घटनाओं का जिसमें हजारों बेगुनाहों की अकाल मौत हो जाती है, का भी पूरी तरह से राजनीतिकरण कर दिये हों, वहां पर आतंकवाद नासूर बनेगा ही। संभव है कि देश को रसातल में जाने में देर नही लगेगी। इतिहास साक्षी है कि यह देश अपने देश के गद्दारों के कारण ही हारा है। आज इतिहास अपने आप को एक बार फिर दुहरा रहा है। भला हो उच्चतम न्यायालय का जिसने अपने विवके का इस्तेमाल करते हुए सिमी पर प्रतिबंध जारी रखा। इस केन्द्र सरकार से पूंछा जाना चाहिए कि जो साक्ष्य व तथ्य वो अब उच्चतम न्यायालय के समक्ष रख रही है वही साक्ष्य व तथ्य उच्च न्यायालय के पंचाट के समक्ष क्यों नही रखा। पूरे देश को यह जानने का अधिकार है कि श्रीमती गीता मित्तल की अध्यक्षता वाली पंचाट पीठ ने ऐसा आरोप क्यों लगाया कि ''सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध लगाने के पर्याप्त सबूत नही पेश किये''। मगर सच्चाई यही है कि संप्रग की सरकार ने पोटा जैसे कानून को आतंकियों के भलाई के लिए हटाया। आज आतंकवाद का बढ़ना इसी का दुष्परिणाम है।

इस देश में आतंकियों का समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं को इंडिया टुडे में छपे अप्रैल, 2003 के उस साक्षात्कार को जरूर पढ़ना चाहिए जिसमें सिमी के मुखिया सफदर नागौरी ने बड़े बेबाकी से कहा था कि हिन्दुस्तान को सबक सिखाने के लिए आज महमूद गजनवी की जरूरत है। मुस्लिमों के रहने के लिए यह देश तभी मुकम्मल होगा जब यहां इस्लाम का शासन होगा। इतना ही नही सिमी खुलकर अलकायदा व आजाद कश्मीर का समर्थन करता है। सिमी के आका नागौरी के नारको टेस्ट के बयान को सुनें तो पता चलता है कि अलीगढ़ में सिमी की व्यापक गतिविधियां हैं। सिमी अब सिमी के नाम से ही नही बल्किी इंडियन मुजाहिदीन के नाम से भी अपनी गतिविधियों को जारी किये हुए हैं।
सिमी का संबंध अरब की राबता कमेटी के छात्र संगठन बामी और इंटरनेशनल इस्लामिक फेडरेशन ऑफ स्टूडेंट से भी है। सिमी के ही गुर्गों ने 2002 में गुप्तचर ब्यूरो के राजन शर्मा का अपहरण कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के हबीब हॉल में ले जाकर बर्बरता पूर्वक वस्त्र विहीन करके पीटा था। 1997 में अलीगढ़ के सिविल लाइन क्षेत्र में सिमी का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था, जिसमें सिमी के कई प्रमुख नेता उपस्थित थे। उन दिनों नागौरी सिमी का राष्ट्रीय महासचिव था। खुफिया सूत्रों के मुताबिक वर्ष 2001 में सिमी पर प्रतिबंध लगा तो इस संगठन के दो फाड़ हो गए। एक गुट हार्ड लाइन था तो दूसरा लिबरल कोर।

इतना ही नही सिमी के कार्यकर्ता आतंकवाद का प्रशिक्षण लेने पाकिस्तान-अफगानिस्तान के दौरे पर अक्सर जाते रहते हैं। गुजरात, कर्नाटक बम विस्फोट इसके ताजा उदाहरण हैं। सिमी कानपुर में भयानक दंगा करा चुका है। इसमें सिमी ने कानपुर में कुरान जलाने की झूठी अफवाह फैला दी, इससे कानपुर कई दिनों तक दंगों की आग में जलता रहा। कई बेकसूरों की बलि चढ़ी और अरबों-खरबों की संपत्ति श्वाहा हो गई। सिमी को भारत की धर्म निरपेक्षता फूटी आंखों भी नही सुहाती है। सिमी भारत को एक इस्लामिक मुल्क बनाना चाहता है। इसी के कारण उसका आदर्श अमेरिका का मोस्ट वांटेड ओसामा बिन लादेन व दुनिया में तबाही मचाने वाला तालिबान हैं।
यही नही मदरसों में भी सिमी की भारी घुसपैठ है। क्योंकि यहां इस्लाम और कट्टरता की शिक्षा उसके कंटकाकीर्ण मार्ग को और सुगम बना देते हैं। इन मदरसों को चलाने के लिए सिमी को विपुल मात्रा में अरब देशों से धन मिल रहा है। कुछ अर्सों से अरब, सीरिया, ईरान का रूझान मुस्लिम कट्टरपंथी देशों की तरफ हुई है। ये मुस्लिम देश भारत में अपने पक्ष में भारी जनमत बनाना चाहते हैं।

विशेषकर अमेरिका विरोधी जेहाद में क्यूबा, ईरान, सीरिया आदि देशों की संदेहास्पद भूमिका से खुफिया एजेंसियों की नींद उड़ा दी है। सिमी के पक्ष में कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं का आना मुस्लिम तुष्टीकरण का भी तुष्टीकरण है। मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए यह गंदा खेल पूर्व में कांग्रेस खेलती थी मगर इस खेल में अब क्षेत्रीय दल भी पारंगत हो गए हैं। यहां तक कि वामदल भी मुस्लिमों को तुष्ट करने में किसी से पीछे नही है। उनके द्वारा पश्चिम बंगाल में सत्ता के लिए बांग्लादेशी घुसपैठियों को समर्थन देना जग जाहिर है। पिछले केरल विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों ने मुस्लिमों को रिझाने में कोई कोई कोर-कसर नही छोड़ी। राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक के खातिर मुस्लिमों के प्रति पूर्ण समर्पण देश को कहीं का नही छोड़ेगी। क्योंकि जब सिमी जैसे आतंकी संगठनों की तरफदारी खुलकर राजनीति के बाजार में होने लगती है तो देश का हित चाहने वाले लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंचना स्वाभाविक है।

अभी हाल ही में राजस्थान और कुछ दूसरे प्रदेशों में जेहादी घटनाओं को अंजाम देने वाले लश्कर और सिमी मोर्चे के एक संगठन ने एक घोषणा पत्र निकाला। इस घोषणा पत्र में चंद पंक्तियों को पढ़ने के बाद सब कुछ स्पष्ट हो जाता है कि वे हिन्दुओं के प्रति कितनी घृणा रखते हैं, उसके कुछ अंश इस प्रकार हैं - ''हिन्दुओं के खिलाफ जेहाद करना अल्लाह की इजाजत है। हिन्दू व कुछ अन्य हमारे विरोधी हैं। इसलिए उनके विरूध्द ज़ेहाद हमारी मजहबी अनुमति है। अगर हम लड़ते-लड़ते खत्म हो जाते हैं तो जन्नत में हमारे लिए काफी स्थान है।''

इस घोषणा पत्र में और भी विष-वमन किया गया है-''हिन्दुओं को अपने 33 करोंड़ नंगे और गंदे देवताओं को मानने की गलती समझ लेना चाहिए। ये सारे हिन्दू मिलकर भी हमारे हांथों से कटती हुई गर्दनों की रक्षा नही कर पाएंगे।'* इस घोषणा पत्र में धमकी दी गई है कि ''अगर हिन्दू अपना रवैया नही बदले तो मुहम्मद गोरी और गजनवी फिर आकर इस देश में कत्लेआम करेंगे। हम यह भी दुनिया को दिखला देंगे कि इस धरती पर हिन्दुओं का खून सबसे सस्ता है।'' बाबरी ढांचा जमींदोह होने के बाद सिमी ने देश को गोरी, गजनवी द्वारा रौंदे जाने की याद दिलाई थी।

एक ओर सिमी जैसे आतंकवादी संगठनों की आक्रामकता तो दूसरी ओर कांग्रेस की आतंकवाद पर लुंजपुंज, ढीली व नरम रवैया देश में विध्वंसकारी घटनाओं को बढ़ाने में भारी मदद कर रही है। इस देश को पता है कि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने माओवादियों के साथ समझौता करके चुनाव जीता था। बाद में उन्हें भारी रियायतें दी गई। इसी प्रकार पूर्वोत्तर के राज्यों में उसने उल्फा के साथ गठजोड़ कर फतह हासिल किया। यह सभी को विदित है कि चुनावों में उल्फा जैसे आतंकी संगठनों की मदद से चुनाव में जीत हासिल करने के बाद उन्हें तमाम तरह के छूट व मदद करने की कांग्रेस की पुरानी चाल रही है। जम्मू-कश्मीर में तो उसकी लंबी फेहरिस्त है। वहां तो कांग्रेस आतंकियों को कबाब और बिरियानी भी खिलाती थी। उनके पकड़े जाने की स्थिति में आतंकवादियों को सुरक्षित रास्ता भी देती थी।

भोले-भोले बेगुनाह नागरिकों के खून की कीमत पर वोट बैंक की राजनीति करने का काम उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश जैसे अनेंक राज्यों में होता रहता है। कांग्रेस हमेशा इस बात से भय खाती रही कि आतंकवाद को सख्ती से कुचलने पर उसका मुस्लिम वोट-बैंक बिगड़ जाएगा। इससे यही साबित होता है कि कांग्रेस ने मुसलमानों को आतंकवाद का समर्थक मान लिया है। एक प्रकार से उसने आतंकवाद को मुस्लिम वोट बैंक से जोड़कर देश के धर्म निरपेक्ष मुसलमानों के साथ घोर अन्याय का काम किया है। यही वजह है जिसके चलते संसद पर हमला करने का मुख्य आरोपी अफजल गुरू की फांसी अनिश्चित काल के लिए रोक लगा दी गई है। और तो और कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री गुलामनवी आजाद ने यह धमकी दी कि अगर अफजल गुरू को सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार फांसी दी गई तो श्रीनगर जलकर खाक हो जाएगा। कांग्रेस ने इसके बाद बड़े बेहयाई से घुटने टेक दिये।

हकीकत यह है कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल में आतंकवाद के मसले पर सबसे नाकाम, नपुंसक और अक्षम सरकार साबित हुई है। कांग्रेस अपने विपक्षी पार्टी को बहुत सफाई से उत्तर देती है कि कारगिल पर हमला, तीन खूंखार आतंकवादियों को कंधार छोड़ना और अक्षरधाम पर हमला क्या था। यानी कि विपक्षी पार्टियों के शासन काल में आतंकवाद की घटनाएं हुई थी इसलिए हमारे शासन काल में ये घटनाएं दुहराई जाएंगी। यह सच्चाई है कि आतंकवाद की घटनाएं राजग सरकार के समय में हुई थी। ये घटनाएं अमेरिका तक में हो गई हैं और अभी हाल में चीन के सिक्यांग प्रांत में भी हुईं है। राजनीतिक दलों को चाहिए कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति न करें। वे एकता का परिचय देते हुए आतंकवाद के नासूर को जड़ से खत्म करें। इस मुद्दे पर राजनीति की जाएगी तो देश खोखला हो जाएगा। आज एक कड़े कानून की सख्त जरूरत है, जिससे आतंकवाद पर लगाम लगाया जा सके।

कांग्रेस का कहना है कि पोटा से आतंकवाद पर काबू नही पाया जा सकता। इस कानून के द्वारा किसी एक वर्ग को परेशान किया जा रहा है। मगर कांग्रेस को यह याद रखना चाहिए कि जब एक ही वर्ग आतंकवाद में लिप्त पाया जा रहा है तो क्या हमारे सुरक्षा एजेंसियों को उनसे पूंछतांछ भी करने का हक नही है। उसके लिए भी सबूत दिया जाएगा तब बात हो सकती है। इस संवेदनशील मुद्दे पर अगर कोई दल राजनीति करता है तो यही समझा जाएगा कि वो इस देश का दुश्मन है। आने वाली पीढ़ियां ऐसी राष्ट्रद्रोही पार्टियों को कभी माफ नही करेंगी। मुसलमानों को भी पोटा जैसे सख्त कानून को लागू करवाने के लिए आगे आना चाहिए। आज कोई आतंकवादी घटना होती है तो यदि कोई मुसलमान पकड़ा जाता है तो कुछ मानवाधिकार संगठन झूठ-मूठ का हो-हल्ला मचाते हैं कि बेवजह मुसलमानों को परेशान किया जा रहा है। जबकि सैकड़ों लोग जब बम विस्फोटों में मारे जाते हैं तो ये मानवाधिकार संगठन सोए रहते हैं। मानों ये मानवाधिकार संगठन न होकर दानवाधिकार संगठन हैं।

अभी हाल ही में यह निर्णायक प्रमाण मिले हैं कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन तथा उसके मित्र दलों का आतंकवाद के प्रति बिल्कुल नरम रवैया है, प्रमाण यह है कि कांग्रेस पार्टी के राम नरेश यादव, बसपा के अकबर अहमद डंपी और समाजवादी पार्टी के अबू आजमी ने मुफ्ती अबू बशीर के आजमगढ़ गांव का दौरा किया था। इसके अतिरिक्त दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम सैय्यद बुखारी ने भी मुफ्ती अबू बशीर के गांव का दौरा किया था- वो बशीर जो सिमी का मास्टर माइंड है तथा जिसे अहमदाबाद के धमाकों में लिप्त पाये जाने के कारण गुजरात पुलिस ने गिरफ्तार किया था। सनद रहे कि इन धमाकों में 55 बेगुनाह लोग मारे गए थे और करीब 150 घायल हो गए थे।

जहां पूरे देश में गुजरात पुलिस द्वारा मुफ्ती अबू बशीर तथा अन्य नौ लोगों की इन धमाकों तथा देश के अन्य राज्यों में धमाके में लिप्त होने पर त्वरित गिरफ्तारियां होने तथा मामले का शीघ्रताशीघ्र खुलासा करने के लिए हर जगह प्रसंशा हो रही है वहीं कांग्रेस, सपा, बसपा और कांग्रेस के नेताओं ने आतंक के इन दोषियों के विरूध्द साक्ष्य की परवाह किये बिना उनके गांव का दौरा किया। इन राजनैतिक दलों के कुत्सित इरादे तब प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देते हैं, जब वे आतंक के विरोध में की जाने वाली किसी भी ठोस कार्रवाई को किसी संप्रदाय विशेष के विरूध्द कार्रवाई बताकर उनकी निंदा करते हैं।

गृहमंत्री हकीकत जानने से इंकार करते हैं और इस्लामी आतंकवादियों को गुमराह किये गए बच्चे बताते हैं। इससे बड़ा तुष्टीकरण और क्या हो सकता है। सपा, बसपा, लोजपा और कांग्रेस द्वारा आतंकवादियों के साथ हमदर्दी का प्रत्यक्ष प्रदर्शन आतंकवाद को समर्थन देने के समान है। पूरे देश की जनता को चाहिए कि आतंक का समर्थन करने वाले इन नेताओं का चुनाव के समय बहिष्कार किया जाए। वर्ना इस देश का भविष्य ही विध्वंस हो जाएगा। जनता को चाहिए कि ऐसे नेताओं का विरोध करने के लिए सड़कों पर उतरें। तभी आतंकवाद पर लगाम लग सकता है। क्योंकि राजनीतिक नेता जनता की सहनशीलता को उसकी कमजोरी समझ रहे हैं।

Monday, August 18, 2008

कश्मीरियत का मतलब




स्वप्न दास गुप्ता

कश्मीरियत का मतलब सभ्य समाज के लिए इंटरनेट के फायदों से कौन इनकार कर सकता है, लेकिन संचार का यह माध्यम अब चरमपंथ और अलगाववाद का भी उपकरण बन गया है। इस सप्ताह की शुरुआत में मुझे किसी डा. अब्दुल रुफ कोलाचल का लेखन पढ़ने को मिला। वह जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के स्कालर होने का दावा करते हैं। उनके बारे में थोड़ी-बहुत और खोजबीन करने पर पता चला कि कोलाचल का जन्म तमिलनाडु में हुआ और वह मैसूर विश्वविद्यालय में अध्यापन कर चुके हैं। उनके कुछ लेख एक कश्मीरी समाचार पत्र में भी छप चुके हैं।

अलगाववाद समर्थक कश्मीरवाच डाट काम में वह भारत के खिलाफ अपना गुस्सा उतारते हैं-भारतीय मीडिया ने पैसे और समर्थन के आधार पर छद्म राष्ट्रवादी शक्तियों के एक बड़े वर्ग का निर्माण कर भारतीय शासकों की सफलतापूर्वक मदद की है। अपने आरोप के समर्थन में वह बीजिंग में ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिंद्रा के मीडिया में छा जाने का उदाहरण देते हैं। वह लिखते हैं-जब एक भारतीय ने निशानेबाजी में ओलंपिक स्वर्ण पदक जीता तो पूरे देश और खासकर मुस्लिम विरोधी मीडिया ने उनकी बड़ी-बड़ी तस्वीरों के साथ उनकी उपलब्धि को आजादी के बाद की सबसे महत्वपूर्ण घटना बताया। निशानेबाजी तो आतंकी गतिविधियों के लिए जरूरी कौशल है और भारतीय जिस तरह शूटिंग में मिले पदक की सराहना कर रहे हैं उससे भारतीयों की आतंकवाद समर्थक मानसिकता उजागर होती है।

भारतीय मानसिकता के संदर्भ में इस नवीन अंतदर्ृष्टि में यह महत्वपूर्ण नहीं है कि ऐसी मानसिकता का क्या वास्तव में अस्तित्व है, बल्कि यह है कि इसके बीज उन लोगों द्वारा बोए जा रहे हैं जो इस्लाम की आजादी के आंदोलन की अगुवाई कर रहे हैं। सोचे-समझे ढंग से किया जा रहा यह प्रयास कश्मीर घाटी में तेजी से अपना असर फैला रहा है। शायद इस कोशिश से हमें चौंकना नहीं चाहिए। पिछले दो दशक से घाटी के अलगाववादी नेता ने दोहरे आचरण और दोहरी भाषा में महारथ हासिल कर ली है। उदाहरण के लिए हुर्रियत कांफ्रेंस के नेतृत्व ने अपनी एक भाषा मीडिया, बौद्धिक जनों तथा पश्चिमी राजनयिकों के लिए आरक्षित कर ली है। इस भाषा में सशक्तीकरण, सभ्य समाज, दोहरी संप्रभुता जैसे शब्दों का जमकर इस्तेमाल किया जाता है। अलगाववादियों का एक और पक्ष तब प्रकट हो जाता है जब उनके नेता अपने साथियों से बात करते हैं। जरा हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी के उस बयान पर निगाह डालिए जो उन्होंने अमरनाथ यात्रा के संदर्भ में दिया।

गिलानी कहते हैं-भारत सरकार ने एक खास मकसद से अमरनाथ यात्रियों और पर्यटकों को कश्मीर भेजा है। इस कृत्रिम तीर्थस्थल में यात्रियों और पर्यटकों को भेजने के पीछे कश्मीर पर अपना कब्जा मजबूत करने का मकसद है ताकि आगे चलकर कश्मीर के संदर्भ में भी वैसा ही दावा किया जा सके जैसा दावा फलस्तीन क्षेत्र के लिए यहूदी करते हैं। इस मकसद को पूरा करने के लिए ही अमरनाथ श्राइन बोर्ड की स्थापना की गई। कश्मीरियों को अमरनाथ यात्रा से कभी परेशानी नहीं हुई, लेकिन एक बार जब यह यात्रा अपना कब्जा मजबूत करने का उपकरण बन गई तो कश्मीरियों को चिंता हुई। अब जरा कल्पना करें कि तोगडि़या जैसे लोग यदि यह कहने लगें कि हज का स्थान आतंकवादी विचारधारा के प्रसार का उपकरण बन गया है और इसे रोका जाना चाहिए तब क्या होगा? यह भी तो कहा जा सकता है कि पहले से तंग हमारे हवाई अड्डे हाजियों के आवागमन का बोझ नहीं उठा सकते और यह भी कि विशेष हर्ज टर्मिनल स्थापित करना भारतीय पहचान को नष्ट करने का कार्य करेगा। क्या ऐसे विचार व्यक्त करने वाले लोगों को एक दिन के लिए भी बख्शा जाएगा? कश्मीर में चल रहे आंदोलन का न तो कश्मीरी पहचान से कोई लेना-देना है और न ही उस विशिष्ट कश्मीरियत से जिस पर गिलानी जोर दे रहे हैं। यह एक स्पष्ट अलगाववादी आंदोलन है, जो इस मान्यता पर आधारित है कि एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र में एक पृथक इस्लामी राज्य अवश्य होना चाहिए।

अब इसे गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में हुए बम धमाकों से अलग नहीं रखा जा सकता। ये बम धमाके भी इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा लोकतंत्र और राष्ट्रवाद की अस्वीकृति की घोषणा हैं। दूसरी तरह कहें तो भारत की एकता और व्यक्तित्व पर दोहरा आघात किया जा रहा है। इसका दिखाई देने वाला एक स्वरूप घाटी में है और दूसरा अदृश्य स्वरूप अन्यत्र हमारे शहरों में बम धमाकों के रूप में महसूस किया जा सकता है। इन दोनों स्वरूपों को नियंत्रित करने वाली ताकतें एक ही हैं, जैसा कि गुजरात पुलिस ने गत दिवस खुलासा किया। कश्मीरी अलगाववादी भारत से अलग हो जाना चाहते हैं, क्योंकि वे अपने लिए पृथक राज्य चाहते हैं।

इसके लिए उन्होंने 1990 में घाटी से अल्पसंख्यक हिंदुओं को बाहर निकाल दिया। सिमी और इंडियन मुजाहिदीन हिंदू भारत को तबाह कर देना चाहते हैं, क्योंकि वे केवल एक इस्लामिक राज्य में रह सकते हैं। हुर्रियत कांफ्रेंस के पास खासा जन समर्थन है और अब आतंकवाद ने व्यापक घरेलू नेटवर्क बना लेने के प्रमाण दिए हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब घाटी की घटनाओं को राष्ट्रीयता के लिए खतरा बताते हैं तब वह सही होते हैं, लेकिन आश्चर्य है कि वह जम्मू के आंदोलन की तुलना कश्मीर में चल रहे घटनाक्रम से कर बैठते हैं। इस दृष्टिकोण का खोखलापन श्रीनगर में स्वतंत्रता दिवस पर उजागर हो गया जब अलगाववादियों ने लाल चौक पर भारतीय ध्वज तहस-नहस कर दिया और उसके स्थान पर पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया। दूसरी ओर जम्मू में यह आम जनता का स्वतंत्रता दिवस था, जहां केवल एक ध्वज-भारतीय तिरंगा लहरा रहा था। क्या हम अब भी राष्ट्रवादियों की तुलना उन लोगों से कर सकते हैं जो भारत को तोड़ देना चाहते हैं? (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं,
दैनिक जागरण)

Tuesday, July 24, 2007

यात्राओं का महत्व

दीनानाथ मिश्र

जब कोई व्यक्ति अपनी सोच या विचारधारा को सामान्य जनमानस तक पहुंचाना चाहता है तो उसके सामने यात्रा सबसे विकल्प के रूप में उभरती है। यात्रा का महत्व जितना प्राचीन काल में था, उतना ही आज है। यात्रा का स्वरूप भले ही बदला हो लेकिन उद्देश्य आज भी वही है। सामाजिक तथा राजनैतिक दोनों तरह की यात्राएं जनचेतना फैलाने का ही कार्य करती हैं। इसमें यह जरूर निर्भर करता है कि यात्रा करने वाले की प्रतिभा और उद्देश्य क्या है। सामान्यत: वही यात्राएं सफल होती हैं जो तत्कालीन समाज की रूपरेखा से हटकर एक नई सोच और दिशा प्रदान करती हैं। जिन यात्राओं ने इतिहास रचा है, उस पर नजर डालें गौतम बुध्द, शंकराचार्य, महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, आडवानी और चन्द्रशेखर की यात्राएं महत्वपूर्ण हैं। इन सभी ने समानय विचारधारा से हटकर एक नई विचारधारा देने की कोशिश की थी। यात्रा सफल होने पर जन सैलाब उसी के अनुरूप सोचने लगती है और अंतत: अपने उद्देश्यों को पाने में सफल रहती है। भारत की यात्राओं पर राजीव कुमार ने भारत के तीन वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर, पॉयनियर के संपादक चंदन मित्रा व दीननाथ मिश्रा से बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश:
यात्राओं के बारे में दीनानाथ मिश्र जी का कहना है कि:

शिक्षा की दृष्टि से यात्रा का काफी महत्व है, क्योंकि यात्रा करने वाला अपनी यात्रा से कुछ न कुछ शिक्षा जरूर ग्रहण करता है। जो व्यक्ति जितना ज्यादा संवेदनशील होता है वो उतना ही उस यात्रा से लाभ लेकर लोगो को कुछ दे सकता है। उदाहरण के तौर पर महर्षि बाल्मीकि ने मैथून रत क्रौंच पक्षी को बहेलिया द्वारा मारते देख उन्हें बहुत गहरी संवेदना हुई और उन्होंने एक महाकाव्य ही रच डाला। बहुत से यात्री जब यात्रा पर जाते हैं तो अपनी अच्छी आदत के मुताबिक डायरी में सब कुछ नोट करते रहते हैं क्योंकि उन्हें अपनी स्मृति शक्ति पर विश्वास नही रहता है। लेकिन बहुत से लोग हैं, जिन्हें उस दृश्य से कोई मतलब नही रहता है। यात्रा करने वाले यात्री के पास निरीक्षण क्षमता रहनी चाहिए। व्यक्ति को विकासोन्मुख होना चाहिए। अगर उस समय उसका ध्यान कहीं और है तो वो यात्रा से वो कुछ भी ग्रहण नही कर पाएगा साथ में, उसका परिवार कैसा है यह भी महत्वपूर्ण है।

महात्मा गांधी ने अपने जीवन में कई यात्राएं की हैं। गांधी जी ने तो आजीवन यात्रा ही की है।उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के अधिकारों के लिए लड़ा और उनके अधिकार पुन: वापस दिलाये। फिरंगी काले लोगों पर कितना जुल्म ढाते थे, उनके अधिकारों के लिए उन्होंने अपने जीवन का काफी समय दक्षिण अफ्रीका में ही होम कर दिया।
गांधी की दांडी यात्रा एक सांकेतिक यात्रा थी। उन्होंने इस यात्रा में नाम मात्र का नमक बनाकर गोरों की सत्ताा को एक प्रकार से चुनौती दी थी। इस यात्रा ने ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख दिया था। गांधी जी जब यात्रा करते थे तब उनके साथ उनके सैकड़ों समर्थक व अनुयायी भी साथ चलते थे। वे जगह-जगह लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ जागरूक करते भी चलते थे। अंग्रेजों के खिलाफ गांधी जी के तेवर को देखकर न जाने कितने लोगों के अंदर देशभक्ति की भावना जग जाती थी।
और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने यात्रा को राजनैतिक हथियार बना लिया था। उन्होंने एक ऐसे विषय को लेकर यात्रा की जो अभूतपूर्व था। उन्होंने राम मंदिर बनाने के लिए जो रथ यात्रा निकाली उसे भारी जनसमर्थन मिला। जनता की समर्थन का तो अंदाजा ही नही लगाया जा सकता। उनकी रथ यात्रा का एक वाकया याद आता है कि पूर्वी प्रदेश में रात के साढ़े तीन बजे करीब 1500 लोग उनका स्टेशन पर खड़े होकर इंतजार कर रहे थे। उनकी इस यात्रा से जनता में ऐसा संदेश गया कि हजारों लोगों ने अपने शरीर के अंगो को काटकर रत्ता चंदन लगाया। उनकी यह यात्रा लोगों के दिलो दिमाग पर इस कदर छाया कि लोगों ने कई सालों तक इसे भूल नही पाये। तब यह पहला मौका था जब विपक्ष के यात्रा विरोधी तर्क को जनता ने खारिज कर दिया। तब सारे देश का ध्यान इस यात्रा में केन्द्रित हो गया था। लोग रथयात्रा के एक-एक पल की जानकारी लेने के लिए उत्सुक और तत्पर रहते थे। सुबह उठते ही सबसे पहले लोग अखबारों में यात्रा से संबंधित खबरे ही पढ़ते थे।
और, आडवाणी जी के जीवन की दूसरी प्रमुख यात्रा भारत सुरक्षा यात्रा थी। यह यात्रा आडवाणी जी ने 6 अप्रैल 2006 से यूपीए सरकार की नीतियों से उपजे आतंकवाद और तुष्टीकरण के खिलाफ था। आडवाणी जी की 35 दिवसीय यह यात्रा गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश होते हुए छत्तीसगढ़ तक हुई। इस यात्रा में लोगों ने तपती धूप की परवाह किए बगैर हजारों की संख्या में लोग उनकी यात्रा से जुड़े और इस यात्रा का भरपूर समर्थन किया। भारत सुरक्षा यात्रा के निर्धारित स्थानों पर पहुंचने से पूर्व ही लोग कतारबध्द होकर आडवाणी जी से मिलने के लिए लोग बहुत उत्सुक दिखाई दिए। लोगों में इस बात का अपार हर्ष था कि भाजपा यूपीए सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ देशव्यापी अभियान चलाकर जनजागरण कर रही है। आडवाणी जी ने नगर, शहर, कस्बों और गांव-गांव में जनसभा को संबोधित कर कांग्रेस की अल्पसंख्यकवाद की खतरनाक नीति व तुष्टीकरण्ा के प्रति देश की जनता को सजग रहने की चेतावनी दी। यात्रा में उमड़ते भीड़ से यह अंदाज लगाया जा सकता था कि यूपीए सरकार की ढुलमुल नीतियों से लोगों में कितना जबरजस्त आक्रोश का दावानाल था।
चंद्रशेखर कांग्रेस के युवा नेताओं में से एक थे। इन्होंने भारत जोड़ो यात्रा शुरू की थी। इन्होंने दक्षिण से उत्तर की यात्रा की थी। चन्द्रशेखर ने लोगों की गरीबी और बदहाली देखा। उस समय इनके साथ सौ से डेढ़ सौ लोग यात्रा करते थे। इस यात्रा का फायदा यह हुआ कि चंद्रशेखर का स्वास्थ्य बेहतर हो गया। इनके यात्रा का कोई ठोस व निर्धारित लक्ष्य नही था।
बाद में विनोवा भावे ने भूदान यात्रा की। देवीलाल ने किसान यात्रा की। धीरे-धीरे यात्रा एक फैशन हो गया। जयप्रकाश नारायण भी भूदान आंदोलन में विनोवा भावे के साथ थे। भूदान आंदोलन चला था। जमींन दान के आंकड़े लाखों एकड़ में आते हैं मगर सही मायने में देखा जाए तो गरीबों को हजारों एकड़ भी जमीन नही मिली। बिहार में तो बंटी जमीने भी गरीबों से वापस ले ली गई।
और धार्मिक यात्राओं को लें तो प्राचीन काल से चारों धाम की यात्राओं का महत्व हमारे शास्त्रों में वर्णित मिलता है। हर धार्मिक हिन्दू के मन में यह लालसा होती है कि वह चारों धाम बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम्, पुरी की यात्रा करे। सैकड़ों तीर्थाटन हिन्दू धर्म में है। केदारनाथ, वैष्णो देवी के दर्शन के लिए भक्तगण अपने प्राणों की तक परवाह
नही करते। आज आधुनिकता के इस दौर में धार्मिक यात्राओं का महत्व कम नही हुआ है।
प्रयाग को तीर्थों का राजा कहा जाता है। वहां आज भी कुंभ मेले में इतनी भीड़ होती है कि उसे संभालना मुश्किल हो जाता है। प्रयाग का यह धार्मिक कुंभ मेला आज का नही है। यह मेला हजारों साल से लगता है। यहां करोड़ों लोग आते हैं। इस पवित्र तीर्थ में स्नान आदि करने के बाद बड़े-बड़े महात्माओं का दर्शन व प्रवचन का लाभ लेकर अपने जीवन को कृत-कृत्य करते हैं।
राजनेताओं ने धार्मिक यात्राओं के महत्व को समझा है, क्योंकि उसमे सामाजिक शत्तिा ज्यादा थी। अगर हम जैन धर्मावलंबियों को ले तो वे यात्राएं ही करते रहते हैं। उनकी अखंड यात्रा का कोई न कोई मकसद रहता है। वे जीवन का लक्ष्य यात्रा से ही हल कर लेते हैं।
और हम शंकराचार्य को हम देखें तो वे अल्पायु में ही यात्रा करते हैं। उन्हाेंने चार मठों बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, उड़ीसा, उत्तरांचल में स्थापना की। इन मठों से आज भी अध्यात्म के संदेश जन-जन को दिये जा रहे हैं। शंकराचार्य ने इन यात्राओं से शास्त्रार्थ की परंपरा डाली और घूम-घूम कर अद्वैत का संदेश दिया। अद्वैत वो संदेश था कि अगर पहाड़ की चोटी पर पहुंचना लक्ष्य है तो येनकेनप्रकारेण वहां पहुंचना है।शंकराचार्य जी जगह-जगह घूम कर अद्वैत का संदेश देते थे। शंकराचार्य का अद्वैत वो ज्ञान था जो संसार की हर प्रकार के वैचारिक मतभेद को खत्म करने की अद्भुत क्षमता रखता है। अद्वैत उपनिषदों का सार है।

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चंदन मित्रा

हमारे देश में सदियों से यात्रा की परंपरा रही है। पहले के जमाने में रेडियो, अखबार नही होते थे। इसलिए उस समय यात्रा का महत्व अधिक होता था। रामायण आदि ग्रंथों में यात्रा का विवरण मिलता है। सबसे पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने केरल से यात्रा की थी। वे केरल होते हुए श्री नगर फिर कश्मीर पहुंचे। ये ही भारत में प्रथम शंकराचार्य माने जाते हैं।भारत के संतों ने सत्य सनातन धर्म को पुन: स्थापित करने के लिए यात्रा के जरिये लोगों को हिन्दू धर्म से जोड़ा। लोगों में हिंदू धर्म के प्रति मौजूद गलत फहमियों को दूर किया। आदिगुरू शंकराचार्य ने अपनी यात्राओं में ज्ञान के प्रचार के साथ-साथ मठों की भी स्थापना की थी।
बौध्दधर्म में भी यात्रा का काफी विवरण मिलता है। गौतमबुध्द के यात्रा करने के कारण बौध्दों में यात्रा बहुत ही लोकप्रिय हो गया। गौतम बुध्द हमेशा यात्रा ही करते रहते थे, यत्र-तत्र घूम-घूम कर लोगों को अपने पवित्र ज्ञान की शिक्षा देते थे। बुध्द ने अपने यात्राओं में अष्टांग मार्ग का का प्रचार किया। जिनमें यम,नियम,आसन,प्राणायाम, प्रत्यार आदि प्रमुख थे। गौतम बुध्द ने अपनी यात्राओं में संघों की स्थापना पर जोर देते हुये व सांसारिक आसत्तिा को पूर्णरूपेण त्यागने व निर्लिप्त रहने का संदेश दिया। इस तरह महात्मा बुध्द ने समाज में बढ़ रहे अनैतिकता व अज्ञानता को अपने ज्ञान के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया।
भारत में तमाम तरह की यात्राएं तो हुई ही, विदेशों में भी यात्राओं के विवरण देखने को मिलते हैं। इनमें मोहम्मद साहब को छोड़कर बाकी सभी धर्मों के लोगों ने एक दूसरे धर्मों में समन्वय स्थापित करने का प्रयास किया। यात्रा तो ईसा मसीह ने भी किया। ईसा अपने शिष्यों के साथ गांव-गांव घूमा करते थे। पीड़ितों, दु:खियों की सेवा में वे हमेशा रत रहते थे। कोढ़ियों आदि की सेवा उन्होंने बड़ी तन्मयता से की। उनके इस सेवा का ईसाई समाज पर इतना असर पड़ा कि आज भी ईसाई धर्म में खासकर महिलाएं पूरा जीवन पीड़ितों की सेवा में लगा देती हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण मदर टेरेसा रही हैं। संत-महात्मा इस तरह की यात्राएं उस समय समाज में फैली गंदगियों को दूर करने के लिए करते थे।
यात्रा में अगर हम गांधी जी को लें तो वे भारत की अंतरात्मा से जुड़े थे। उन्होंने हिन्दू धर्म का बहुत गहराई से अध्ययन किया, उसकी बारीकियों को बखूबी समझा था। गांधी जी को यह भलीभांति पता था कि भारतवर्ष में सत्याग्रह, त्याग, बलिदान का आज भी महत्व है। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने इसका प्रयोग चंपारन से शुरू किया। महात्मा गांधी ने अन्याय और अत्याचार दूर करने के लिए अपनी जान तक की परवाह न करते हुए अनेकों बार भूख हड़तालें की । जिसके चलते वे शारीरिक रूप से अत्यधिक जर्जर हो गए। महात्मा मोहनदास करमचंद्र गांधी की दांडी यात्रा आधुनिक युग में प्रथम राजनीतिक यात्रा थी। गांधी जी ने देश के लिए एक मापदंड छोड़ा, कि कैसे देश के लोगों में यात्रा के जरिये संदेश को पहुंचाया जाय। लोगों को कैसे अपने साथ जोड़ा जाय। दुश्मनों को अपनी एकता के जरिए कैसे हिलाया जा सकता ह,ै यह पूरे विश्व के लोगों को महात्मा गांधी की यात्रा के जरिये शिक्षा मिली। गांधी जी ने अपनी यात्रा को प्रचार का माध्यम बनाकर इसका उपयोग देश की आजादी के लिए किया।
गांधी जी की यात्रा ने जब अपना रंग दिखाना शुरू किया तो न केवल अपने देश से बल्कि विदेशों के तमाम पत्रकारों व फोटोग्राफरों ने इसे महत्व दिया। जिससे गांधी की यात्रा विदेशों में भी लोकप्रिय हो गई। पूरे देश में एक प्रेरणा की लहर दौड़ पड़ी।कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के लोग एकता के सूत्र में बंध गए। जिसके फलस्वरूप ब्रिटिश हुकूमत बुरी तरह भयभीत हो गई। इसके बाद फिर इस तरह की यात्राएं एक प्रकार से बंद ही हो गई।
परन्तु स्वाधीनता के पश्चात आचार्य विनोवा भावे ने भी यात्राएं की हैं।वे गांव-गांव घूमकर अमीरों को जमीन दान के लिए प्रेरित किया। कुछ समय लगा कि विनोवा जी को सफलता मिल रही है। लेकिन विनोवा जी को उनके अपनों ने ही धोखा किया। बाद में यह तय हुआ कि गरीबों,किसानों को बगैर किसी संघर्ष के जमीन को दिया जाए।
और रही पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के यात्रा की, इस तरह की यात्राएं करने से देश के बारे में ज्ञानार्जन काफी हो जाता है, साथ में देश की समस्या से रू-ब-रू होने का मौका भी मिल जाता है।
इस देश में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की यात्रा को महात्मा गांधी के दांडी मार्च के बाद सबसे महत्वपूर्ण यात्रा माना जाता है। आडवाणी की यह यात्रा गुजरात के सोमनाथ मंदिर से शुरू होकर अयोध्या तक गई थी। इस यात्रा ने देश के लोगों में श्री राम लला के प्रति भक्ति प्रेम की एक ऐसी भावना फूंकी, कि पूरा देश श्री राममय हो गया था। अयोध्या मुद्दे पर पूरा देश एकता के सूत्र में बंधा नजर आया। इस यात्रा में हिन्दुत्व मुद्दे को काफी प्राथमिकता मिली। हिन्दू समाज में एक मजबूत आत्मविश्वास का उद्भव हुआ। इस यात्रा के जरिये भारतीय राजनीति को एक नया मोड़ मिला।भाजपा अभी भी उसी रास्ते पर चली जा रही है। क्योंकि मूल विषय से हटकर राजनीति तो हो ही नही सकती। जिस तरह महात्मा गांधी की यात्रा अपने आप में एक ऐतिहासिक हो गई। उसी तरह आडवाणी की यात्रा राजनैतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक रूप से नयापन लाने में पूरी तरह सफल रही थी।
आडवाणी जी की दूसरी प्रमुख यात्रा स्वर्ण जयंती यात्रा थी, जो देश के स्वतंत्रता के 50वीं वर्षगांठ पर शुरू हुई। इस यात्रा में आडवानी जी देश के कोने-कोने तक गए, जिसमें अंडमान निकोबार द्वीप समूह, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र भी शामिल था। आडवाणी जी उन आदिवासी इलाकों में भी गए जहां कभी कोई नही गया था। वहां पर उन्होंने लोगों के दु:खों को जानने के बाद, उन्हें सांत्वना दिया और ढांढस बंधाया। आदिवासी लोग अपने आपको हमेशा उपेक्षित व शोषित पाते थे कोई उन्हें पूंछने वाला नही था। यद्यपि तमाम गैर सरकारी संस्थाएं आदिवासियों के मदद के लिए हैं मगर एक राष्ट्रीय स्तर का नेता उनके घर जाकर उनके दु:खों के बारे में जानने से उन्हें अपार हर्ष की अनुभूति हुई। जहां एक तरफ मुम्बई और दिल्ली के अमीर लोगों में जमीन आसमान का अंतर है। ऐसे उच्च धनाढय वर्ग के लोग गरीबों के दु:खों को महसूस नही करते थे, वहीं आडवाणी जी ने इन गरीब आदिवासियों के करीब जाकर उनके पीड़ा को बड़ी निकटता से महसूस किया व हरसंभव मदद देने का आश्वासन दिया था। क्योंकि इससे पूर्व वहां शोषित आदिवासी लोग अपने आपको देश-दुनिया से कटा हुआ पाते थे। आडवाणी जी की यह यात्रा अपने आप में ऐतिहासिक रही क्योंकि इनकी यह यात्रा सिर्फ भाजपा के लिए ही नही बल्कि पूरे भारत को एकता के सूत्र में जोड़ने में काफी हद तक सफल रहा था।
लेकिन अब यात्राओं को नया मोड़ देने की जरूरत है। शंकराचार्य के बाद महात्मा गांधी की यात्रा महत्वपूर्ण थी। फिर लालकृष्ण आडवाणी ने यात्राओं के जरिए देश को एक नया मोड़ दिया था। भारत में बड़े-बड़े नेताओं को सिर्फ लोग टीवी चैनलों व अखबारों में ही देख पाते हैं। मगर यात्रा के द्वारा देश के लोगों को इन बड़े नेताओं व संतों से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है। यात्रा लोगों के मन को प्रभावित करने का सबसे बड़ा और आसान जरिया है। ये नेता या संत जब गांव-गांव जाकर हाथ जोड़कर जन-जन से मिलते हैं तो लोगों को अपार सुख का अनुभव होता है। लोग यात्रा से प्रभावित तो होते ही हैं साथ ही देश व समाज को जोड़ने के लिए ऐसी यात्राओं का बहुत भारी महत्व है।
एक अन्य प्रमुख महत्वपूर्ण प्रमुख यात्रा विश्व हिन्दू परिषद की है। यह यात्रा एकात्मक यात्रा थी, जो कि 1981 में शुरू हुई थी। शायद आडवाणी ने इसी यात्रा से प्रेरणा लेकर इसके आठ साल बाद यात्रा निकाली थी। एकात्मक यात्रा में प्रमुख रूप से दो उद्देश्य थे, पहला भारत की सारी बड़ी नदियों को जैसे गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, गोदावरी आदि को एक दूसरे नदी में ले जाकर मिलाप कराना और दूसरा हिन्दुओं को अन्य धर्म में हो रहे मतांतरण को रोकने के साथ ही उनके उपर ढाए जा रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाना था।
इससे पूर्व तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम् में कुछ दलित परिवारों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था और फिर यह कहा गया कि अभी तो यह शुरूआत है, धीरे-धीरे देश के सारे दलितों को मुसलमान बनाया जाएगा। इस घटना से हिन्दू संगठनों को काफी धक्का पहुंचा, बहुत से हिन्दू मर्माहत हुए। इस घटना को ध्यान में रखते हुए विश्व हिन्दू परिषद ने नेपाल के काठमांडू से एक यात्रा निकाली जो मीनाक्षीपुरम् से कन्याकुमारी तक गई। इस यात्रा का मूल मकसद यही था कि अगर हिन्दू समाज के उपर प्रहार होता है तो उसे रोकना हमारा प्रथमर् कत्ताव्य होगा। विहिप की इस यात्रा के शुरूआती दौर में लोगों में कोई दिलचस्पी नही ली। मगर धीरे-धीरे यह यात्रा इतनी प्रचलित हुई कि मीडिया ने भी इस यात्रा को खूब कवरेज किया। यह यात्रा पूरी तरह शत्-प्रतिशत सफल रही। अगर गौर करें तो इस यात्रा के बाद इस्लाम ग्रहण की घटना फिर दोबारा नही हुई।

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कुलदीप नैयर

अगर यात्राओं की बात करें तो मेरे विचार से देश की सबसे प्रमुख यात्रा भारत छोड़ो आंदोलन थी, जिसे 1942 में महात्मा गांधी ने शुरू किया था। इस यात्रा में जयप्रकाश नारायण, जवाहर लाल नेहरू आदि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शामिल थे। भारत छोड़ो आंदोलन में गांधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ पूरे भारत में अंग्रेजों से लड़ने की ताकत पैदा कर दी थी। यह ताकत गांधी को सत्य और अहिंसा से मिली थी। महात्मा गांधी की एक और प्रमुख यात्रा नमक बनाने को लेकर शुरू हुई। गांधी जी का कहना था कि नमक बनाना हम भारतीयों का हक है, इसे अंग्रेज कानून बनाकर नही रोक सकते। उन्होंने नमक बनाकर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी। गांधी जी समुद्र के किनारे दांडी तक अपने समर्थकों के साथ यात्रा करते हुए गए। उनकी यह यात्रा आगे चलकर दांडी मार्च के नाम से मशहूर हुई। गांधी जी पूरे देश को एक संदेश देना चाहते थे कि जो हमारा अधिकार है उसे लेने के लिए किसी भी प्रकार से अंग्रेजी हुकूमत हमें रोक नही सकती। वे जब नमक बनाने समुद्र के किनारे चले तो उसमें से बहुत से आजादी के परवानों को पीटा गया, लेकिन मोहनदास करमचंद गांधी ने ब्रिटिश जुल्म के खिलाफ घुटने नही टेके। उनकी यह मुहिम अंग्रेजों के खिलाफ बढ़ती ही चली गई। महात्मा गांधी का मूल लक्ष्य लोगों को जागृत करना था, इसे उन्होंने अपने यात्रा के जरिये बखूबी अंजाम दिया। दांडी यात्रा में गांधी जी ने कई सौ किलो मीटर पैदल चलकर इतिहास रचा था। गांधी जी ने सीधे तौर पर अंग्रेजों को चेतावनी दिया कि हमारे देश से जल्द से जल्द निकल जाओ। अंग्रेजों को हमारी चिंता करने की जरूरत नही, हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया जाय। उन्होंने अंग्रेजों से तीखे शब्दों में कहा कि द्वितीय विश्व युध्द में हमसे पूंछे बगैर युध्द की आग में भारतीयों को क्यों झोंक दिया गया।
सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के तीन बीर सेना अधिकारियों शहनवाज खान, प्रेम सहगल, जी.एस. ढिल्लन का मुकदमा लाल किले में चलना शुरू हुआ तो लोगों ने जगह-जगह अंग्रेजों के खिलाफ बड़े-बड़े जुलूस निकाले, सड़क के चौराहों पर ब्रिटिश हुकूमत के विरूध्द प्रदर्शन किया गया। इन सारे क्रांतिकारी यात्राओं का असर यह हुआ कि अंग्रेजों को इन तीनों सेना अधिकारियाें को माफ करना पड़ा। अंग्रेजों पर धीरे-धीरे दबाव पड़ा और उन्हें मजबूर होकर भारत छोड़ना पड़ा।
सन् 1946 में, समुद्री जहाज के अफसरों ने जहाजों में ही गोरों को देश से हटाने को लेकर प्रदर्शन व हड़ताल किया। उनके द्वारा यह किया जाना भी देश के स्वतंत्रता की एक कड़ी थी। 1947 में जब बंटवारा हुआ तो दोनों तरफ से कई काफिले चले। बहुत से लोगों को अपना आशियाना छोड़ना पड़ा। हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। हिन्दू-मुस्लिम दंगों में करीब दस लाख आदमी मारे गये, और दो करोंड़ आदमी बेघर हो गये। मैं स्वयं स्यालकोट से आया था। जब 15 अगस्त, 1947 को देश आजाद हो गया और शपथ ग्रहण की तैयारी चल रही थी लाखों लोग संसद और इंडियागेट के सामने जमा हो गए थे।
उसके बाद मुस्लिम महिलाओं के लिए सुप्रीमकोर्ट का फैसला मील का पत्थर साबित हुआ। जिसमें शाहबानो नाम की एक 60 वर्षीय वृध्द महिला को उसके पति ने तलाक दे दिया था। उसने अपने जीविकोपार्जन की खातिर उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उसके पति के उपर सेक्शन 125 की धारा के तहत आपराधिक मुकदमा दर्ज हुआ और न्यायालय ने शरियत को नजरअंदाज करते हुए शाहबानो को गुजारा भत्ताा देने का आदेश दिया। लेकिन कठमुल्ले मुस्लिम नेताओं ने फैसले की आलोचना करते हुए न्यायालय के फैसले को मानने से इंकार कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संविधान संशोधन कर न्यायालय के आदेश को ही पलट दिया। परिणामस्वरूप शाहबानों के साथ न्याय नही हो पाया।
राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर के ताले खोल दिये। उसको लेकर हिन्दू और मुसलमानों के फासले बढ़ते गए और रही बात आडवाणी की यात्रा की तो, आडवाणी की यात्रा है तो धार्मिक लेकिन इसे राजनीतिक रूप दिया गया। उस यात्रा का मकसद था कि किसी तरह हिन्दू-मुस्लिम तनाव हो और भाजपा की झोली में हिन्दुओं का वोट चला आए। वीपी सिंह की सरकार इसी में मारी गई। बिहार में आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। तब से राम मंदिर का मुद्दा राजनीतिक हो गया। चुनाव के समय राम मंदिर मुद्दे को उछाला जाता है ताकि राजनीतिक रूप से चुनाव में भाजपा को बढ़त मिले। नि:संदेह भाजपा की ताकत में इजाफा हुआ। लेकिन यह देश की ताकत नही थी बल्कि किसी पार्टी की ताकत थी जो मंदिर के नाम पर लोगों को उकसा रही थी। जहां-जहां आडवाणी की रथयात्रा गई वहां-वहां काफी सांप्रदायिक झगड़े हुए, कई लोग मारे गए। आखिरकार सांप्रदायिक शक्तियों ने बाबरी मस्जिद गिरा कर ही दम लिया। हिन्दुओं में ये भावना जरूर थी कि मंदिर बने लेकिन मस्जिद किसी कीमत पर न टूटे। कोई ऐसा हल निकल सकता था जो सर्वमान्य हो, लेकिन उससे पूर्व सारी चीजें राजनीति में विलीन हो गई।
अब यह मुद्दा देश के सामने एक ऐसा सवाल बन गया है कि जिससे केवल तनाव ही बढ़ सकता है। मंदिर बनाने की कोशिश तो हुई, मगर अजीब बात है कि इस देश में भूख, गरीबी, रूल ऑफ लॉ को लेकर कभी कोई यात्रा नही निकाली गई। पिछले कुछ महीनों से कई यात्राएं जमीन के सवाल पर, जंगल के सवाल पर निकाले गए मगर उनको अभी तक सफलता नही मिली। क्योंकि राजनीतिक पार्टियां हर सवाल को वोटों के नजरिये से देखती हैं, और आप अगर गरीबी की बात करते हैं तो इंदिरा गांधी ने कहा था कि तुम मुझे वोट दो हम तुम्हारी गरीबी दूर करेंगे। लेकिन गरीबी कम नहीं हुई बल्कि और बढ़ी। आज देश में बहुत से ऐसे गरीब हैं जो रात के समय भूखे पेट ही सो जाते हैं। देश में कितनी ऐसी माताएं हैं जो भूखे पेट ही अपने बच्चों को जन्म देती हैं।आज के युवाओं सहित व दूसरों लोगों के लिए यह एक चुनौती के समान है कि वे कब ऐसी यात्रा निकालेगें जिसका एकमात्र लक्ष्य हो कि जो गरीब भूखा है उसको रोटी मिले, जो नंगे हैं उन्हें कपड़ा मिले और जरूरतमंदों को सर छिपाने के लिए एक छत नसीब हो।
गांधी जी जब आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे तो कहा था कि किसी के आंखों में आंसू नही होने चाहिए, लेकिन अब ऐसा लगता है कि वो मंजिल दूर है तथा उसके लिए और प्रयास करने पड़ेंगे। पर राजनीतिक पार्टियों की मदद के बगैर इस लक्ष्य को नही पाया जा सकता। राजनीतिक पार्टियां गरीबों की गरीबी दूर करने में बहुत कम दिलचस्पी रखती हैं। इन पार्टियों के लिए गरीब एक वोटर मात्र है। ऐसे गरीबों को धमकाकर, फुसलाकर, रिश्वत देकर किसी भी प्रकार से उनके वोटों को हासिल कर लो। आज के राजनीतिज्ञों का यही एक धंधा है।आज राजनीतिक पार्टियों के लिए एक नैतिक रूल की जरूरत है। मेरा मतलब वसूलों और मूल्यों से है। इस देश में ये जरूर होगा मगर कब और कैसे कहना मुश्किल है

Friday, June 15, 2007


अलकायदा और ओसामाबिन लादेन ?

दुनिया में इस्लामिक आतंकवाद के जरिए आतंक मचाने वाले अलकायदा संगठन की स्थापना 1988 में हुई थी। धीरे-धीरे अलकायदा ने मुस्लिम देशों से मदद लेकर अपने संगठन को काफी मजबूत कर लिया। आज कम से कम 60 देशों में अल-कायदा की गतिविधियां जारी है। शुरू में अल-कायदा ने यहूदियों, ईसाइयों के विरूध्द खूनी जंग जारी की, लेकिन बाद में अमेरिका और ब्रिटेन समेत कई देशों सहित अलकायदा ने दुनिया के सभी गैरमुसलमानों को अपने निशाने पर ले लिया। आज हिन्दू बहुल वाला देश हिन्दुस्तान इसके निशाने पर है। लादेन ने भारत को कई बार सीडियां जारी करके को धमकाया है और उसकी सीडियों को हल्के तौर नही लेना चाहिए। क्योंकि ये इस्लामी आतंकवादी अपने मंसूबों को कामयाब करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। तो फिर हम संक्षिप्त रूप में अलकायदा गतिविधियों और ओसामा के जीवन के बारे में संपूर्ण रूप से जानकारी लेते हैं।
कट्टर इस्लामिक आतंकवादी ओसामा बिन लादेन का पूरा नाम ओसामा बिन मोहम्मद बिन लादेन अवाद बिन लादेन है। लादेन का जन्म 10 मार्च 1957 को रियाद, सउदी अरबिया में हुआ था। खुद ओसामा ने 1988 में अलजजीरा टीवी चैनल के एक इंटरव्यु में उसने अपना जन्म 10 मार्च, 1957 बताया। उसके पिता मोहम्मद अबाद बिन लादेन धनी व्यापारी थे। लादेन के जन्म के बाद उसकी मां ने उसके पिता से तलाक ले लिया और मुहम्मद अल अता से विवाह कर लिया। ओसामा की शिक्षा-दीक्षा जेद्दा में हुई। वहां उसने इकोनॉमिक और मैनेजमेंट पढ़ा। 1974 में लादेन ने 17 वर्ष की उम्र में अपनी मां के भाई की लड़की नजवा घनीम से विवाह किया। लादेन ने करीब चार औरतों से शादी किया जिसमें एक को तलाक दिया। ओसामा को कुल 12 से 24 बच्चे हैं। उसकी पत्नी नजवा के अनुसार 11 बच्चे बिन लादेन के उसने खुद जने हैं।
ओसामा बिन लादेन की कद-काठी बड़ी लम्बी है। एफबीआई का उसके बारे में कहना है कि वह लम्बा और पतला है। वह 6 फुट 4 ईंच या 6 फुट 6 ईंच का है। यानी लगभग 193 से 198 से.मी. है। लादेन का वजन 165 पाउंड करीब 75 केजी है। वह हमेशा सफेद पगड़ी पहनता है और सउदी लिबास में रहता है।
1991 में लादेन ने सूडान को अपना अड्डा बनाया, सूडान सरकार की मदद से भारी तादाद में प्रशिक्षण शिविर बनाए। लेकिन 1996 में तालिबान के नेतृत्व में लादेन और उसके मददगार सूडान छोड़कर दोबारा अफगानिस्तान आ गए। आज भी अलकायदा के पाकिस्तान में छिपे रूप से आतंकवादी शिविर सक्रिय हैं।
लादेन का अफगान मुजाहिदीनों से गहरा संबंध रहा है। सन् 1979 में जब सोवियत सेनाओं का अफगानिस्तान में पूरी तरह आधिपत्य हो गया था, तब लादेन व उसके सहयोगियों ने अमेरिका के सहयोग से मुस्लिम गुरिल्ला मुजाहिदीनों को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया। जिससे सोवियतसंघ के अफगानिस्तान में पैर उखड़ गए। लादेन जिस संगठन का कमांडर इन चीफ था उसका पूरा नाम अल-खदमत अल कायदा था। ओसामा धनी लादेन घराने से संबंध रखता है। इसके संबंध कई इस्लामिक आतंकवादी नेताओं से है। लादेन को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए 25 मीलियन डॉलर का ईनाम अमेरिका ने रखा है, मगर आज तक वह अमेरिका के चंगुल में नही आया।
लादेन अपने जीवन में दो महत्वपूर्ण फतवे जारी कर चुका है। जिसमें पहला 1996 व दूसरा1998 में। लादेन ने 1996 में यह फतवा जारी किया था कि इस दुनिया में गैर मुसलमानो को मार डालना चाहिए। दूसरा यह कि संयुक्त राष्ट्र संघ व उसके सहयोगी देशों को इजरायल से समर्थन वापस ले लेना चाहिए। साथ में यह भी कि इस्लामी देशों में भेजी गई सेना को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वापस बुला लिया जाना चाहिए।

अगर उसके खूनी दास्तान को जाने तो यूएस दूतावास दारे सलाम तंजानिया, नैरोबी व केन्या के बम विस्फोटों में उसको संलिप्त माना गया। आज बिन लादेन अमेरिका का मोस्ट वांटेड क्रीमिनल है। और, अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 की दिल दहला देने वाली घटना के सारे सबूत लादेन की ओर इशारा कर रहे थे। इसके अतिरिक्त बहुत से विमानों के अपहरण में उसका हाथ माना जाता है। न्यूयार्क सिटी न्यूयार्क के वर्ड ट्रेड सेंटर का विनाश व पेंटागन को नुकसान पहुंचाने में उसका हाथ माना गया।

भारत को एक बार नही दर्जनों बार भारी तबाही व बम विस्फोटों के जरिये भारी नुकसान करने की धमकी मिल चुकी है। हॉल के दिनों की कुछ धमकियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है: 8 जून, 2007 को अलकायदा ने एक सीडी जारी करके भारत में भारी खून-खराबा करने की धमकी दी। 23 मई, 2007 मुम्बई स्थित जुड़वा वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को बम से उड़ाए जाने की धमकी के बाद भारी सुरक्षा मुहैया कराया गया। 23 सितंबर, 2006 को खुफिया एजेंसी द्वारा जानकारी के बाद भाखड़ा बांध, नरेंद्र मोदी, भाजपा नेता लालकृष्ण आडवानी, अटल बिहारी वाजपेयी, कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की सुरक्षा में भारी वृध्दि की गई। 9 दिसंबर, 2006 को संसद पर हमले के दोषी आतंकवादी अफजल गुरू की रिहाई के लिए पाकिस्तान स्थित आतंकवादियों द्वारा एक विमान को अपहरण करने की धमकी मिली। जिससे एयरपोर्टो पर सुरक्षा बढ़ाई गई।
अभी हॉल में जून के दूसरे सप्ताह में एक सीडी जारी किया गया जिसमें भारत को तबाह करने की धमकी मिली है। इस सीडी की व्यापक जांच चल रही है।
























Saturday, June 9, 2007



राजनैतिक स्वार्थों के चलते नक्सल
आतंकवाद नासूर बनता जा रहा है

राजीव कुमार


नक्सलियों द्वारा विहारी मजदूरों का सामूहिक नरसंहार, रानी बोदली का सामूहिक नरसंहार की याद देशवासियों को भूला भी न था कि तब तक 29 मई 2007 को माओवादी आतंकवादियों ने घात लगाकर छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पुलिसबल के नौ कमांडरों को मार डाला। ये माओवादी हमले को अंजाम देने के पश्चात पुलिस के ढेर सारे असलहों को भी लूटा। सनद रहे कि अब ये माओवादी घात लगाकर हमले में बहुत तेज हो गए हैं। इससे पूर्व ये नक्सली रानीबोदली की घटना को घात लगाकर तब अंजाम दिया था जब पुलिस वाले शराब पीकर गहरी नीद में सो रहे थे। घात-प्रतिघात में तेज ये नक्सली हमले को इतने द्रुत-गति से अंजाम देते हैं कि सामने वाले को संभलने का मौका ही नही मिलता। अब माओवादी आतंकवादियों द्वारा रोज आए दिन एक न एक हत्या को अंजाम देना उनका क्रूरतम शगल बनता जा रहा है।

इस बार के ताजा हमले में राज्य की राजधानी से करीब 400 किमी दूर कुडुर गांव में माओवादियों से लोहा लेने पुलिस बल गए मगर हमले के लिए पहले से ही तैयार बैठे माओवादियों ने इन पुलिस वालों पर करीब 24 बारूदी सुरंगों का विस्फोट किया। साथ में बंदूकों, बमों से हमला कर नौ पुलिसकर्मियों को बर्बरता पूर्वक मार डाला।
आज नासूर बना नक्सलवाद विहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में गहरी जड़े जमा लिया है। आंध्र प्रदेश के तेलांगना क्षेत्र में तो यह समानांत सरकार चलाने का दावा करता है। इसके अतिरिक्त नक्सली अब स्वयं अपनी अदालत लगाकर लोगों को सजाए मौत देने का ऐलान करने लगे हैं। अभी हाल में करीब मई की अंतिम सप्ताह में नक्सलियों ने स्वयं भू अदालत लगाकर पारस गंझू, जारू गंझू, सूकन गंझू और पसला को घर से निकाल कर बुरी तरह से पीटा और बाद में गोलियों से भून डाला। नक्सलियों ने अपनी अदालत में आरोप लगाया कि इन चारों ने अपने समर्थक मुकेश यादव का शव गायब कर दिया, जिसके कारण चारों को मौत की सजा सुनाई जाती है।

आज परिस्थितियां अलग हैं। नक्सलियों ने अपनी रणनीति में भारी बदलाव किया है। 1990 से नक्सलियों ने अपने संगठन को अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित करना शुरू किया था। नक्सली आंदोलन में 2004 में बड़ी तब्दीली तब आई जब दो बड़े संगठन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप का आपस में विलय हो गया और एक नए संगठन सीपीआई माओवादी का गठन हुआ और इससे इनकी ताकत में दोगुना इजाफा हो गया। इस विलय के बाद नक्सली वारदातों में भारी वृध्दि दर्ज की गई।

इस समय उल्फा करीब रोज आए दिन एक न एक घटनाओं को अंजाम दे रही है। 1979 से हो रहे खूनी हिंसा के तांडव में दोनों पक्षों के 20 हजार से ज्यादा लोग काल के गाल में समा चुके हैं। और इन गठजोड़ों के बाद नक्सलियों का गठजोड़ अब लिट्टे से भी हो चुका है। ये नक्सली लिट्टे को भारत में छिपने का ठिकाना उपलब्ध करा रहे हैं। इसके बदले में लिट्टे उन्हें खतरनाक भारी तबाही वाले हथियार बनाना सिखा रहा है। अभी हाल ही में राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर लिट्टे के समर्थन में नक्सलियों ने पूरी तरह बंद रखा। यह बंद 21 मई 2007 को सरकारी दमन विरोधी दिवस के तौर पर मनाया और इस दिन आंध्र और उड़ीसा के सीमावर्ती क्षेत्रों में बंद का भी आह्वान किया। नक्सलियों द्वारा बंद के इस आह्वान से लिट्टे-नक्सल गठजोड़ की आशंका की पूरी तरह पुष्टि हो गई।

सरकार को सारे स्वार्थों को दरकिनारा करते हुए आतंकियों को पूरी शक्ति के साथ सफाया करना चाहिए। ये नक्सली गरीबों के एक तपके को बहला-फुसलाकर उनके हांथो में बंदूक थमा देते हैं। सरकार को ऐसे गरीबों के पेट का ख्याल रखना होगा। नही तो वो दिन दूर नही जब नक्सलवाद के कारण पूरा देश धू-धू करके जल उठेगा।

Wednesday, June 6, 2007

भारतीय राजनीति के शिखर पुरूष और पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ओजस्वी कवि ओर प्रखर वक्ता है। राजनीति में सक्रिय रहते हुए भी उनके संवेदनशील और हृदयसपर्शी भाव कविताओं के रूप में प्रकट होते रहे। उनकी कविताओं ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई ओर पाठकों द्वारा सराही गईं। उनकी कविताओं में स्वाभिमान, देशानुराग, त्याग, बलिदान, अन्याय के प्रति विद्रोह , आस्था एवं समर्पण का भाव है।