Monday, January 4, 2010

मात्र नौ वर्ष का एक छोटा सा बालक सन् 1675 में पिता के साथ आसाम से पंजाब आया। पिता (गुरू तेगबहादुर) का दिन-रात देश और समाज का चिन्तन तथा धर्म रक्षा का संकल्प बालक के मन को अन्दर तक छू रहा था। एक दिन गुरू तेगबहादुर कश्मीरी पंडितों पर हुए मुगलों के अमानवीय अत्याचारों की कथा सुनते-सुनते कहने लगे - इस समय धर्म रक्षा का एक ही उपाय है कि कोई बड़ा धर्मात्मा पुरूष बलिदान दे। यह बात बालक गोविन्द बड़े ध्यान से सुन रहा था। सभी लोग विषय की गम्भीरता को देख मौन थे। अचानक बालक गोविन्द बोल पड़ा - पिताजी, आज के समय में आप से बढ़कर दूसरा महात्मा व धर्मात्मा पुरूष और कौन हो सकता है। नौ वर्षीय बालक के इस उत्तर पर गुरू तेगबहादुर बहुत प्रसन्न हुए।

मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी सन् 1675 को पिता के बलिदान के पश्चात् बालक गोविन्द नौ वर्ष तक आनन्द पुर में रहे जहाँ उन्होंने अपनी भावी जीवन की योजना बनाई। अपने बलिदान से पूर्व गुरू तेग बहादुर ने यहीं पर उन्हें गुरूता गद्दी प्रदान करते हुए देश, धर्म व दुखी जनता का उद्धार करने का आशीर्वाद दिया। बालक गोविन्द से गुरू गोविन्द बने गुरू गोविन्द सिंह जी ने सिख समुदाय को हुक्मनामे भेज-भेज कर अस्त्र, शस्त्र और धन एकत्रित किया तथा सामाजिक धारा को क्रांतिकारी रूप देने के लिए एक छोटी सेना भी बनाई।

भारत में मुगल शासकों के निरन्तर बढ़ते आक्रमणों से देश और धर्म को बचाने के लिए सन् 1699 में बैसाखी के दिन गुरू गोविन्द सिंह जी ने अपने अनुयाईयों की एक विशाल सभा बुलाई जिसे सम्बोधित करते हुए उन्होंने हाथ में नंगी तलवार लेकर प्रश्न किया कि है कोई, जो धर्म के लिए अपने प्राण दे सकेर्षोर्षो उनकी इस प्रेरणादायक ललकार को सुनकर बारी-बारी से दयाराम खत्री, धर्म दास जाट, मोहकम चंद धोबी, हिम्मत सिंह रसोइया तथा साहब चंद नाई अग्रसर हुए जिनके पश्चात् सारा निश्तेज समाज जोश में भर, उठ खड़ा हुआ। उन्होंने यहीं पर जात-पात के भेदभाव में बिखरे हिन्दू समाज को समिन्वत कर खालसा के रूप में खड़ा किया और इस प्रकार खालसा पंथ की स्थापना हुई।

गुरू गोविन्द सिंह एक बड़े समाज सुधारक थे। सती प्रथा, कन्या वध, अस्पृश्यता (छूआ-छूत) इत्यादि सामाजिक बुराईयों से दूर समानता पर आधारित सामाजिक संरचना के वे पक्षधर थे। वीरता व पराक्रम में उनका मुकाबला नहीं था। चिड़ियों के समान डरपोक भारतीय युवकों को वे कहा करते थे कि
Þसवा लाख से एक खड़ाऊ,
चिड़ियों से मैं बाज लड़ाऊं,
तबै गोविन्द सिंह नाम कहाऊँÞ।

औरंगजेब समर्थक, पंजाब के पर्वतीय नरेशों को, भंगाणी के युद्ध में पराजित किया और 1703 में उन्होंने चमकौर के युद्ध में केवल 40 सिखों की सहायता से मुगलों की विशाल सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। इसमें गुरू गोविन्द सिंह के दो बड़े पुत्रों अजीत सिंह व जुझार सिंह के साथ पांच प्यारों में से तीन प्यारे शहीद हो गये।
सन् 1703 में सरहिन्द के नवाब वजीर खाँ ने उनके दो छोटे पुत्रों जोरावर सिंह और फतेह सिंह को, इस्लाम स्वीकार न करने के कारण दीवार में जीवित चिनवा दिया। चारों पुत्रों और पत्नी की क्रुर हत्या होने के बावजूद भी गुरूजी एक महान योगी की तरह बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए 1706 में उन्होंने खिदराना का युद्ध लड़ा।

वे महान योद्धा तो थे ही, संगीत, साहित्य व कला के क्षेत्र में उनकी गहरी रूचि थी। वे रचनाकार कवि भी थे। उनके द्वारा रचित दशम ग्रन्थ हैं जिसमें - जापु साहेब, अकाल स्तुति, विचित्र नाटक, चण्डी चरित्र, चण्डी दीवार, जफरनामा, चौबीस अवतार, ज्ञान प्रबोध आदि प्रमुख हैं। उनके दरबार में 52 कवि थे। इनमें दया सिंह, नंदलाल, सेनापति चन्दन, खानखाना आदि प्रमुख थे। उनकी रचनाओं में वीर रस की प्रधानता थी। उन्होंने अपने बाद श्री गुरू ग्रन्थ साहेब को गुरू मानने का आदेश देकर गुरूता गद्दी पर आसीन किया। संवत् 1765 अर्थात् ईसवी सन् 1708 में नांदेड़ में गोदावरी के तट पर गुरूजी ने देह त्याग कर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया। उनके द्वारा जलाई गई स्वतन्त्रता ज्योति तथा अन्याय के विरूद्ध लड़ने की भावना आज भी भारतीयों के लिए प्रेरणा स्त्रोत है।
गऊ रक्षा के लिए उनका मत था
`यही दे हु आज्ञा तुरकन गहि खपाऊं,
गऊ घात का दोख जगसों मिटाऊं।
-उग्रदन्ती
अर्थात् हे मां भवानी, मुझे आशीर्वाद और आदेश दे कि धर्म विरोधी अत्याचारी तुर्कों को चुन-चुनकर समाप्त कर दूं आर इस जगत से गौ हत्या का कलंक मिटा दूं। वे देवी दुगाZ भवानी के अनन्य उपासक थे। `खालसा´ सृजन से पहले उन्होंने शक्ति यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उनकी इच्छा थी कि
सकल जगत मो खालसा पंथ गाजै,
जगै धरम हिन्दुक तुरक दुंंद भाजै।
-उग्रदन्ती
अर्थात्, सारे जगत में खालसा पंथ की गूंज हो, हिन्दू धर्म का उत्थान हो तथा तुर्कों द्वारा पैदा की गयी विपत्तियां समाप्त हों।
खालसा के लक्षण पूछने पर दशमेश गुरू ने एक बार कहा कि खालसा वह है जिसने काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार पर काबू पा लिया हो तथा अभिमान, परस्त्री गमन, पर-निन्दा तथा मिथ्या विश्वासों के भ्रमजाल से सदा दूर रहता हो। जो दीन दुखियों की सेवा व दुर्जन-दुष्टों का विनाश कर निरन्तर श्रद्धापूर्वक प्रभु नाम के जप में लीन रहता हो। खालसा को चरित्रवान व पराक्रमी बनाये रखने के लिए उन्होनें पांच ककार धारण करने के लिए कहा। ये हैं - 1. कृपाण 2. केश 3. कंघा, 4. कच्छा व 5. कड़ा।
विनोद बंसल

3 comments:

Anonymous said...

गुरू गोविन्द सिह जी के लेख का शीर्षक गायव है। क्रपया सुधार करें।

Malwinder said...

आप पता नहीं कहाँ के विद्वान हैं जिन्हें सिख धर्म के बारे में रंचक मात्र भी ज्ञान नहीं। ये शब्द गुरू ग्रँत्य्ह साहिब में से नहीं हैं और उग्रदंती जैसे किसी ग्रंथ का तो मैंने पहले कभी नाम ही नहीं सुना है। अगर किसी धर्म के बारे में ज्ञान न हो तो उसके बारे में लिखने से प्रहेज़ करें।

हिंदुस्तानी said...

उग्रदंती जैसे किसी ग्रंथ का वजूद नहीं है। मैं १५ सालों से धर्म शास्त्र का अधययन करता आया हूँ और पाया है कि गुरू गोबिंद सिंह जी की शख़्सीयत को फीका करने के लिये हिंदूवादी लेखकों ने गुरू महाराज के नाम पर कई ग़लत धारणाएं प्रचलित कर दी हैं। गुरू महाराज ज़फ़रनामा में साफ़ अंकित करते हैं, "गाय के नाम पर कसम खाने वालों ने अपना धर्म गँवा लिया है।" गुरू साहिब अकेली गाय नहीं ब्लकि दुनिया के सभी जीवधारियों का उद्धार करने हित जगत में आये थे।