Monday, January 4, 2010

इस टीके पर टीका टिपण्णी क्यों

सुभाष गाताडे
सर्वाइकल कैंसर से मुक्ति का शर्तिया इलाज के नाम से एक मल्टीनेशनल कंपनी द्वारा तैयार किए गए एचपीवी वैक्सिन के विज्ञापन को प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर तमाम लोगों ने देखा होगा। इस कैंसर से होने वाली मौतों को रोकने के लिए कंपनी आपको सलाह देती है कि आप अपनी बेटी को यह टीका अवश्य लगवाएं और सुरक्षित व निश्चिंत हो जाएं। यह अलग बात है कि इस टीके का प्रभाव सिर्फ चार साल तक ही रहता है और इसके चलते जिन किशोरियों-बच्चियों को यह टीका लगाया भी जा रहा हो, उन्हें अगर यौन संसर्ग की अवस्था में सक्रिय होने वाले इस वायरस से बचना है तो फिर इसे लगाना पड़ सकता है। पिछले दिनों चंद महिला संगठनों ने दिल्ली के इंडियन वुमेंस प्रेस का‌र्प्स में एक आमसभा करके इस मसले पर अपने सरोकार का इजहार किया और बताया कि किस तरह देसी-विदेशी बड़ी कंपनियां अपने मुनाफे के लिए स्ति्रयों के शरीरों का दोहन कर रही हैं। गौरतलब है कि इस मसले पर उनकी सक्ति्रयता जुलाई 2009 में शुरू हुई थी, जब उन्हें पता चला कि आंध्र प्रदेश और गुजरात के ग्रामीण इलाकों की लगभग तीस हजार आदिवासी किशोरियों को (जिनकी उम्र 10 से 14 साल के बीच थी) गार्डासिल नामक एक टीका लगाया जा रहा है और यह दावा किया जा रहा है कि इससे सर्वाइकल कैंसर को रोका जा सकेगा। इन महिला संगठनों ने जब चिकित्सा विशेषज्ञों की सहायता से अधिक जानकारी हासिल करने की कोशिश की तो उन्हें इस संबंध में कई अन्य विस्फोटक तथ्य उजागर हुए। उन्हें यह पता चला कि विकसित मुल्कों में पहले से प्रचलित इस टीके को लगाने के तमाम खतरनाक परिणाम सामने आ चुके हैं। इन टीकों से कई स्वस्थ किशोरियों की मौत मौत होने की खबरें भी आई हैं, जिससे कई कंपनियों को इस टीके की खेपों को बाजार से हटाना भी पड़ा है। इस बात को मद्देनजर रखते हुए कि प्रस्तुत परीक्षणों की तरफ भारत सरकार आंखें मूंदे हुए है, उन्होंने इस संबंध में एक ज्ञापन भी स्वास्थ्य मंत्रालय को भेजा। यह अलग बात है कि अब भी मंत्रालय इस मसले पर मौन है और एक तरह से मल्टीनेशनल कंपनियों और एनजीओ के साथ परीक्षणों में साझेदारी में संलिप्त है। निश्चित ही एचपीवी वैक्सिन के प्रसार से उजागर हुई प्रक्ति्रया में नया कुछ नहीं है। गौरतलब है कि आउटसोर्सिग के बढ़ते प्रचलन के दौर में बड़ी-बड़ी बहुदेशीय दवा कंपनियों द्वारा अपनी नई दवाओं के परीक्षण का बोझ तीसरी दुनिया के मुल्कों की जनता पर छोड़ने के मामले में कुछ भी अनोखा नहीं है। पिछले दिनों मुंबई में आयोजित पहले इंडिया फार्मा सम्मिट में इससे जुड़ी तमाम बातें सामने आई थीं। यह बात स्पष्ट हुई कि स्वास्थ प्रणाली की खामियों के चलते ऐसे प्रयोगों में वालंटियर बने लोगों की सुरक्षा का मसला अक्सर उपेक्षित ही रह जाता है। यहां तक कि मरीजों से हासिल की गई सहमति भी विवादास्पद दिखती है। यह अकारण नहीं कि ऐसे लोगों की सहज उपलब्धता के चलते जो गैर-जानकारी में या अपनी गरीबी के चलते ऐसी नई दवाओं का अपने शरीर पर प्रयोग करने के लिए तैयार रहते हैं और इन देशों की लचर स्वास्थ्य प्रणाली और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के चलते आउटसोर्स किए गए चिकित्सकीय परीक्षणों का बाजार आज 12,000 हजार करोड़ रुपये से आगे निकल चुका है। मुंबई में आयोजित सम्मेलन में उद्योगपतियों के संगठन फेडरेशन ऑफ इंडियन चेंबर ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्रीज यानी फिक्की की तरफ से एक रिपोर्ट भी पेश की गई, जिसमें यह जोर भी दिया गया कि राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करने के लिए उपयोगी प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है। न्यूयॉर्क के फोर्डहैम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर फाल्गुनी सेन द्वारा तैयार की गई प्रस्तुत रिपोर्ट में राष्ट्रीय हितों को भी अलग ढंग से परिभाषित किया गया था। इसके मुताबिक चिकित्सकीय परीक्षणों के लिए राष्ट्रीय हित का मतलब है ऐसी दवाएं, जो भारतीय आबादी के हिसाब से अधिक प्रासंगिक हों और अन्य मुल्कों में इसी किस्म की वरीयता नहीं हो। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि परीक्षणों के लिए भारत की परिस्थिति के मुताबिक, ऐसे पैमाने भी तय किए जा सकते हैं कि कौन-सी जांच यहां संभव नहीं होगी। इस फेहरिस्त में अन्य मुल्कों में पाबंदी लगाई गई दवाएं भी शामिल की जा सकती हैं। मालूम हो कि पिछले दिनों ड्यूक यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के मेडिकल रिसचर्स इस बात को लेकर चकित थे कि वर्ष 2007 में जिन नए ड्रग्स पर परीक्षण चले थे, उसके संबंध में एक तिहाई से अधिक परीक्षण अमेरिका के बाहर हुए थे। प्रस्तुत अध्ययन में अमेरिका की बीस बड़ी फार्मास्युटिकल्स कंपनियों ने 500 से अधिक चिकित्सकीय परीक्षणों का विश्लेषण किया था। अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि जिन बाहर के मुल्कों में इन परीक्षणों को अंजाम दिया गया, उसके बारे में कंपनियों के लिए पहले से स्पष्ट था कि उनकी इन दवाओं के लिए कोई खास बाजार मिलने वाला नहीं है। सभी जानते हैं कि तीसरी दुनिया के मुल्कों की बीमारियों और पहली दुनिया की बीमारियों में कुछ समानताएं मिल सकती हैं, लेकिन काफी फर्क भी है। ऐसी तमाम बीमारियां, जो यहां कभी-कभी महामारी का रूप धारण करती दिखती हैं, उनसे वहां लगभग काबू पा लिया गया है। टीबी जैसी बीमारी हो या दूषित जल से पैदा होने वाली डायरिया जैसी बीमारियां हों, वे कभी वहां उस किस्म का कहर नहीं बरपाया करतीं, जैसे कि वे तीसरी दुनिया के हिंदुस्तान जैसे मुल्कों में करती हैं। यह अकारण नहीं कि इन अध्ययनकर्ताओं को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि टीबी जैसी बीमारी के लिए तीसरी दुनिया के इन लोगों पर कोई चिकित्सकीय परीक्षण नहीं चले, भले ही यह बीमारी विकासशील देशों में आज भी बड़े पैमाने पर विद्यमान हो। गौरतलब है कि आम हिंदुस्तानी का बड़ी-बड़ी कंपनियों की दवाओं के लिए गिनीपिग बनने का सिलसिला कोई नया नहीं है। वर्ष 1997 में देश के प्रमुख कैंसर संस्थान इंस्टीटयूट फॉर साइटॉलॉजी एंड प्रिवेंटिव एनकोलॉजी के तहत चला एक अध्ययन काफी विवाद का विषय बना था, जब पता चला था कि 1100 ऐसी स्ति्रयां, जो सर्वाइकल डिसप्लेसिया (गर्भाशय के मुख पर कोशिकाओं के विकास) से पीडि़त थीं, का इलाज केवल इसलिए नहीं किया गया ताकि बीमारी किस तरह बढ़ती है, उसका अध्ययन किया जाए। इसके बाद भी जब अस्वाभाविक बढ़त देखी गई और सर्वाइकल कैंसर की आशंका महसूस की गई, तब भी न तो उन स्ति्रयों को इसके बारे में चेतावनी दी गई और न ही उनका इलाज किया गया, बल्कि चूहों की तरह उन पर परीक्षण जारी रहा। ज्यादा विचलित करने वाली बात यह थी कि यह समूचा अध्ययन देश के एक अग्रणी चिकित्सकीय खोज संस्थान के बैनर तले संचालित हो रहा था, जिस पर चिकित्सकीय शोध की नैतिक मार्गदर्शिका बनाने की प्रमुख जिम्मेदारी थी। इसमें कोई दोराय नहीं कि जब तक चिकित्सकीय नैतिकता के केंद्र में जानकारी के साथ सहमति का मसला नहीं रहेगा, तब तक ऐसे प्रयोगों का बार-बार दोहराव हम देखते रहेंगे। इसके लिए तैयार की जा रही मार्गदर्शिकाओं में न केवल नई तकनीकों व शोधों से उत्पन्न चुनौतियों का जिक्र होना चाहिए, बल्कि बदली सामाजिक परिस्थितियां जैसे भारत जैसे समाज में व्याप्त लिंग व वर्ग असमानता को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
साभार दैनिक जागरण

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