Thursday, December 10, 2009

संसदीय परंपरा पर सवाल



राष्ट्र प्रश्नाकुल है। राष्ट्रजीवन में प्रश्नकाल है। ढेर सारे प्रश्न हैं, लेकिन संसद में शून्यकाल है। संसद देशकाल का दर्पण है। करोड़ों लोगों के हर्ष, विषाद, आस्था, अपेक्षा का सर्वोच्च प्रतिनिधि सदन है। सासद अपने क्षेत्र की जनता के प्रवक्ता और आशादीप हैं। वे इसीलिए मान्यवर हैं और सरकार की प्रत्येक गतिविधि पर सवाल करने, जवाब पाने के अधिकारी हैं, लेकिन बीते 30 नवंबर को सवाल पूछने वाले अधिकाश 34 मान्यवर अनुपस्थित थे। प्रश्नकाल थोड़ी ही देर चला। आहत लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने कहा कि यह गंभीर मसला है। कार्यवाही का यह एक घटा ही लोकतंत्र का सार है। पिछले डेढ़-दो दशक से यह प्रवृत्ति बढ़ी है। 1989 में दो बार, 1988 में तीन और 1985 में पांच बार ऐसी ही स्थितिया आई हैं। हर दफा गंभीर वक्तव्य आते हैं, लेकिन अनुपस्थिति की मूल वजहों पर गंभीर चिंतन नहीं होता। कानून निर्माण के समय भी कोरम का अभाव रहता है। बजट चर्चा के समय भी सदस्य संख्या घट जाती है। महंगाई जैसे अखिल भारतीय आर्थिक प्रश्न पर भी उपस्थिति संतोषजनक नहीं थी। मूलभूत प्रश्न यह है कि मान्यवरों की सर्वोच्च प्राथमिकता क्या है? क्या उनके अपने उद्योग-व्यापार ही उनकी प्रथम वरीयता हैं? क्या राजनीति संसदीय कामकाज से ज्यादा सर्वोपरि है? क्या निमंत्रण, भोज या उद्घाटन संसदीय कार्यवाही और बहुमूल्य प्रश्नकाल की तुलना में ज्यादा औचित्यपूर्ण हैं?
प्रश्नोत्तर संसदीय परंपरा का प्राणतत्व है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने काफी संघर्ष के बाद अंग्रेजी सत्ता से प्रश्नकाल की बहाली करवाई थी। अंग्रेज अपने यहा पार्लियामेंट चलाते थे, लेकिन उपनिवेशों में तानाशाही थी। भारत, अमेरिका आदि उपनिवेश जवाबदेह संसदीय परंपरा की माग कर रहे थे। 1857 के स्वाधीनता संग्राम में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी। 1861 के भारतीय परिषद अधिनियम में भारत की विधान परिषद को कानूनी कामकाज तक ही सीमित किया गया था। भारतवासी प्राचीन प्रश्नकाल परंपरा की बहाली चाहते थे। संघर्ष के चलते 1892 के अधिनियम में प्रश्न करने का अधिकार स्वीकार हुआ। अनुपूरक प्रश्नों की छूट नहीं थी। अंग्रेजों ने 1909 के भारतीय परिषद अधिनियम से यह छूट भी दी, लेकिन प्रश्न पूछने और उत्तर पाने की वास्तविक स्थिति 1919 के मोंटेगो चेम्सफोर्ड सुधारों से मिली। ब्रिटिश संसद स्वयं में संप्रभु थी, लेकिन भारतीय विधान परिषद पर गवर्नर जनरल का वीटो था। इसी पद्धति के विकास से भारत ने ब्रिटिश संसदीय परंपरा अपनाई।
कायदे से ब्रिटिश संसद के 1935 के अधिनियम को शून्य करके अपनी संसदीय प्रणाली बनानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। केंद्रीय सत्ता संसद के प्रति जवाबदेह है। प्रश्नकाल संसद का दिव्य मुहूर्त है। प्रश्नाकुल राष्ट्र के जनप्रतिनिधि प्रश्नाकुल होने चाहिए, लेकिन खामिया भी हैं। पहली लोकसभा में स्वीकार 43,725 प्रश्नों में से केवल 61 प्रतिशत प्रश्नों के ही उत्तर मिले। दूसरी लोकसभा में 24,631 प्रश्न स्वीकृत हुए, लेकिन 47 प्रतिशत का ही जवाब मिल पाया। तीसरी में 56,355, चौथी में 93,538, पाचवीं में 98,606, छठवीं में 50,144 और सातवीं में 1,02,959 प्रश्न स्वीकृत हुए। उत्तर का प्रतिशत 35 से 39 के बीच ही रहा। नौवीं से लेकर बारहवीं लोकसभा में उत्तर प्रदेश 20 से 25 प्रतिशत के आसपास रहा। संसदीय प्रश्नों की गुणवत्ता घटी है। सरकार की जवाबदेही गैर-जिम्मेदाराना हुई है। प्रश्नों के उत्तर की तैयारी में लाखों रुपये खर्च होते हैं। एक घटे के प्रश्नकाल पर 15-20 लाख रुपये का खर्च होता है। प्रश्नों से सरकार को मदद मिलती है। सरकारी कामकाज और प्रशासन में चुस्ती आती है। राष्ट्र के समक्ष हजारों प्रश्न हैं। गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजी-रोजगार और सरकार प्रायोजित पुलिस अत्याचार के चीखते प्रश्न हैं। नक्सलपंथ, जिहादी आतंक, अलगाववाद और क्षेत्रीयताओं के प्रश्न नींद हराम कर चुके हैं। भाषाई हिंसा, बाग्लादेशी घुसपैठ और बाजारवादी अर्थव्यवस्था से कमजोर होती राष्ट्र-राज्य की शक्ति के प्रश्न अनुत्तरित हैं। यहा प्रश्न ही प्रश्न हैं। प्रश्नों का देशकाल है। बावजूद इसके प्रश्न पूछने वाले ही गायब हो रहे हैं।
सवाल पूछने वाले भी उत्तर देने को बाध्य किए जाने चाहिए। पहले ऐसी परंपरा थी। पहली लोकसभा की अनुपस्थिति संबंधी समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि लोकसभा को अधिकार है कि वह अनुपस्थित सदस्य से कारण पूछे। सभा के प्रति सदस्यों का कर्तव्य सर्वोपरि है। वे सभा से तभी अनुपस्थित हों जब अनुपस्थित होने के लिए विवश किए जाएं। नियम समिति ने छुट्टी लेने के नियम 1950 में बनाए। अनुपस्थिति संबंधी समिति ने जुलाई 1957 में कहा कि अनुपस्थिति का कारण बीमारी बताए जाने पर डाक्टरी प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं होगी, लेकिन गैरहाजिरी से चिंतित सदन ने एक सदस्य से डाक्टरी प्रमाण पत्र भी मागा। अध्यक्ष मावलंकर ने तमाम आदर्श अपनाए। उन्होंने 1951 में मा की बीमारी व 1953 में स्वयं की बीमारी की छुट्टी मागी। सदन में उनके संदेश पढ़े गए। 1953 में सिंचाई मंत्री गुलजारी लाल नंदा ने भी लिखित छुट्टी मागी। 1952 में वित्त मंत्री देशमुख ने राष्ट्रमंडल की बैठक में जाने के लिए और कृषि मंत्री एसके पाटिल ने 1960 में अमेरिका यात्रा के लिए लिखित छुट्टी ली। लोकसभा में सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति छुट्टी वाले आवेदनो पर विचार करती है। समिति को उपस्थिति के संबंध में अनेक अनुषंगी अधिकार हैं। संसद या विधानमंडल की सदस्यता विशेषाधिकार देती है। मोटा भत्ता, वेतन, ढेर सारी सुविधाएं, हनक और ठसक देती हैं। सदस्यता अपराधी और माफिया को भी माननीय बनाती है, लेकिन सदस्य उन्मुक्त नहीं हैं। वे सदन की सेवा के लिए ही वेतन पाते हैं। उनकी अनुपस्थिति प्रत्येक दृष्टि से अक्षम्य है। लोकसभा के अध्यक्ष सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति को गैरहाजिरी की बढ़ती प्रवृत्ति पर रिपोर्ट देने के निर्देश दें। एक दिन की भी गैरहाजिरी पर कारण बताओ नोटिस जारी होना चाहिए। दलों के सचेतक और नेता केवल वोट वाले दिन ही उपस्थिति सुनिश्चित कराते हैं। शेष समय अपने सदस्यों को छुट्टा रखते हैं। सदन की कार्यवाहिया निराश करती हैं। राष्ट्रीय समस्याओं पर भी गंभीर चर्चा नहीं होती। संसद और विधानमंडलों को गरिमामय बनाना राष्ट्रीय आवश्यकता है।
संसद की सेवा ही हमारे सासदों की सर्वोच्च प्राथमिकता क्यों नहीं है? भारत में प्राचीनकाल से ही प्रश्नोत्तर परंपरा है। ऋग्वेद में सैकड़ों प्रश्न हैं। उत्तर वैदिक काल का समूचा दर्शन प्रश्नोत्तर है। वाल्मीकि रामायण में राम ने भरत से खेती-किसानी और राज्य व्यवस्था से जुड़े तमाम प्रश्न पूछे थे। यक्ष-युधिष्ठिर सवाल-जवाब विश्वविख्यात हैं। महाभारत का सभापर्व संसदीय परंपरा की शान है। सभा में जानबूझकर न जाना और जाकर चुप रहना पाप है। सभा में घटित दोष का आधा पाप अध्यक्ष पर, एक चौथाई मौन सदस्यों पर और बाकी एक चौथाई गलती करने वालों पर पड़ता है। प्राचीन भारत के राजकाज में प्रश्न थे, उनके उत्तर थे, लेकिन इस्लामी, अंग्रेजी राज ने राजा की जवाबदेही घटाई। स्वाधीनता संग्राम सेनानियों ने इसकी पुनस्र्थापना की। स्वतंत्र भारत की राजनीति ने इसका कबाड़ा कर दिया है। संसदीय परंपरा को संवारना, संव‌िर्द्धत करना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है। जनता सर्वोच्च न्यासी है। जनगणमन देखे, जाचे कि उसके प्रतिनिधि क्या कर रहे हैं?
[हृदयनारायण दीक्षित: लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं]

साभार दैनिक जागरण


1 comment:

Arshia Ali said...

इस महत्वपूर्ण लेख को यहाँ उपलब्ध कराने के लिए आभार।
------------------
शानदार रही लखनऊ की ब्लॉगर्स मीट
नारी मुक्ति, अंध विश्वास, धर्म और विज्ञान।